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अनुसन्धान- ४१
चैत्र वदी ३, गुरु-युक्तिअमृत मुनि दीक्षा नाम कीर्तिसार, कियोद्धार - १९४५, आचार्य पद १९७२ पौष वदी १५, आचार्य नाम जिनकृपाचन्द्रसूरि के नाम से ही प्रसिद्ध हुए, स्वर्गवास
जिनकीर्तिसूरि किन्तु १९९४ माघ सुदि
११ पालिताणा ।)
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सर्ग २, श्लोक ८६-८७ के अनुसार कृपाचन्द्रसूरि संवत् १९५२ में भी धुलेवा तीर्थ की यात्रा के लिए पधारे थे ।
संवत् १९८० में इस काव्य के तृतीय सर्ग श्लोक १८४ से १८८ तक में वर्णन मिलता है कि :
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श्रीकालिकातानगरीनिवासी सच्छ्रेष्ठि-चम्पाऽऽदिकलालमुख्यः । प्यारेसुयुक् लालमहेभ्यकाऽऽदेः, सुखेन संघः समुपागतोऽत्र || १८४|| श्रीसंघपत्याग्रहतो महीयान् प्रभावक श्रीजिनकीर्तिसूरिः । सशिष्यकस्तेन समं चचाल, कर्तुं तदा केसरियाजियात्राम् ॥१८५॥ (युग्मम्)
संघेन सार्धं समुपागतोऽत्र, श्रीमत्प्रभुं केसरियाजिनाथम्; प्रेक्षिष्ट भक्त्याऽतुलया सशिष्यः, संस्तुत्य मोदं ह्यधिकं समाप ॥ १८६॥ मासद्वयं तत्र सुहेतुतोऽस्थात्, विधाय भूयिष्ठपरिश्रमं सः । सिताम्बरीयाऽखिल जैन संघ --स्वामित्वमत्रत्य - सुचैत्यकेऽस्ति ॥ १८७॥ एतच्छिलालेखमलब्ध तत्र, यो गुह्य आसीदुपरिस्थितत्वात् । तल्लेखमुर्वीपतिरप्यपश्यत् श्राद्धाऽऽदिलोका अपि ददृशुश्च ॥१८८॥
अर्थात् कलकत्ता नगर निवासी श्रेष्ठ चम्पालाल प्यारेलाल संघ सहित वहाँ आए थे । संघपति के अत्याग्रह से श्री जिनकीर्तिसूरि ( कृपाचन्द्रसूरि) अपने शिष्य मण्डल के साथ केसरियाजी तीर्थ की यात्रा करने के लिए चले। संघ के साथ केसरियाजी पहुँचे । शिष्यों से युक्त आचार्य अतुलनीय भक्ति के साथ प्रभु के दर्शन कर, स्तुति कर प्रमुदित हुए। वहाँ विशेष कारण से २ माह तक निवासी किया । यह तीर्थ श्वेताम्बर अखिल जैन संघ का है और इसका प्रमाण इस चैत्य के भीतर ही है । इसलिए उसको ढूंढने का विशेष प्रयत्न किया, किन्तु वह शिलालेख दृष्टिगोचर नहीं हुआ । विशेष
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