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April-2003
कहे श्रीबाई कंथने, नठर वचन न बा (बो) ल. भोला मन चंत परिहरो रे, चालो मारग वेवार ||९|| रतन:
वण अवगण नीज कामनी रे, एम केम तजो नर [जा?]ण | उत्तमकुळ]नी हु उपनी रे, मुज साख पडे संसार ॥१०॥ रतनः
हु दनदन सुख माणति रे, मुझ रतनसि भरतार. मोटे मने हु माणति रे, तुझ उपर निरधार; ॥११॥ रतन.
कुलवती सुणो सुदरि रे, आ संसार असार, चोरासी लखमां हु फर्यो रे, जिव अनंति वार; ॥१२॥ रतन.
सगपण सरवे आपणा लहे रे, न रहि मणा लगार
धर्म वोणो आतमो रे, वसिइ नरग मझार ॥ १३ ॥ रत०
दस दृष्टांते पामीई रे, मानविनो अवतार.
धर्म सामग्री सरवे लही रे, हवे कोण फरे संसार ? ||१४|| रत०
सानध कीधी सुदरी रे, मुझ परणेवा पचखाण.
बेन सरखी तु हवे रे, साभल चतुर सुजाण ॥ १५ ॥ रत०
सासरवासो तु पेरती रे, मुझ बंधव कही बोलाव. दे आसीस सोहामणी रे, कुंकुम चोखे वधाव ||१६|| रतन०
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तम अम सगपण जोडीउ रे, ती जाणे जगत्र विख्यात इम केम कामनी छांडसो रे, तुम सामी हो मारा नाथ. ||१७|| रत०
गुणवंता सुणो नाथजी रे, केम रेसु निरधार,
जो वेराग हतो आवडो रे, तो परथम न कीधो वीचार ||१८|| रत०
हवे मन थर करो नाथजी रे, पोचो तमे आ वार लगन दवस वचारीने रे, आवजो धरी उलास ॥१९॥ रत० तमेअ तो आस्था घणी रे, सफल करो गुणवंत, इम कीम दीक्षा लीजीइ रे, कुंवारां सुणो कंथ ॥२०॥ रत०
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