________________
अनुसन्धान ४५
जो संक्षिप्त चित्रण प्रस्तुत किया है उससे मालूम पड़ता है कि ऋग्वेद में यमरूप पितर को सर्वाधिक महत्त्व है । उसका यज्ञ से सम्बन्ध जोडा है । स्मृति तथा पुराण ग्रन्थों में धीरे धीरे पितरों के साथ साथ ही श्राद्धविधि, पिण्ड तथा तर्पण का महत्त्व भी बढ गया । उसके अनन्तर स्मृतिसम्बन्धी स्वतंत्र ग्रन्थों में श्राद्ध तथा उसके उपप्रकारों की मानो बाढ सी आ गयी । (ब) पितरसम्बन्धी मान्यताओं में सुसूत्रता का अभाव :
ब्राह्मण परम्परा के विविध मूलगामी ग्रन्थों में तथा स्वतन्त्र ग्रन्थों में पितर तथा पितृलोक सम्बन्धी विविध मत व्यक्त किये हैं । विविध आशंकाएँ उपस्थित की हैं । अतार्किक एवं असम्भव लगनेवाले विवेचनों की उपपत्ति लगाने का भी प्रयास किया गया है । इन सब में एक समान धागा यही है कि किसी भी दो ग्रन्थों में साम्य के बजाय मतभिन्नता ही अधिक है । निम्नलिखित वाक्यों पर अगर नजर डाली जाएँ तो इसी तथ्य की पुष्टि होती
. पुण्यवान पितर स्वर्लोक में जाएँ और स्वर्लोक के पितर स्वस्थान में
जाएँ ।१० इससे यह सूचित होता है कि कुछ पितर ही स्वर्लोक में
जाते हैं और उसमें कुछ पितर स्वतन्त्र पितृलोक में जाते हैं । . हे सर्वज्ञ अग्निदेव ! 'स्वधापूर्वक' अर्पित मृतदेह में नया जीवन
डालकर तुम पितरों को दे दो (१९ दग्ध मृतदेह को पुनः जीवित बनाकर अग्निदेव पितरों को अर्पित करता है । अथर्ववेद में देव, मनुष्य, असुर, पितर और ऋषि इन पाँच समाजों का निर्देश है ।१२ तैत्तिरीय संहिता के एक मन्त्र से यह सूचित होता है कि देव, मनुष्य, पितर, असर, राक्षस और पिशाच यह ६ भिन्न योनियाँ हैं।१२ पितरविषयक वैदिक, स्मार्त और पौराणिक साहित्य का आलोडन करके श्री.ना. गो. चापेकरजी ने यह सिद्धान्त सामने रखा है कि देव
और मनुष्य के समान पितर नाम का एक समाज था ।१४ लेकिन १०. ऋग्वेद १०.१५.१
१३. तैत्तिरीय संहिता २.४ ११. ऋग्वेद १०.१६.५
१४. भारतीय संस्कृतिकोश पृ. ५६५ १२. ऋग्वेद १०.१६.५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org