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अनुसन्धान ४५
'पितर' संकल्पना की जैन दृष्टि से समीक्षा
डॉ. अनीता सुधीर बोथरा
प्रस्तावना :
हैं
वैदिक या ब्राह्मण परम्परा और श्रमण परम्परा- ये दोनों परम्पराएँ भारत में प्राचीन काल से समान्तर रूप में प्रवाहित, अलग अलग परम्पराएँ यह सत्य विद्वज्जगत् में प्रायः मान्य हुआ है । इन परम्पराओं की अलगता दिखानेवाले जो अनेक छोटे-बड़े तथ्य सामने उभरकर आते हैं, उसमें 'पितर' संकल्पना और उससे जुडी हुई श्राद्ध, तर्पण तथा पिण्ड ये संकल्पनाएँ भी आती है ।
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जैन समाज आरम्भ से संख्या में अल्प है । विविध कारणवश पूरे भारतभर में बड़े शहरों से लेकर छोटे गाँव या बस्तियों तक बिखरा हुआ है । अतएव हिन्दु समाज का दैनन्दिन सान्निध्य उसे प्राप्त हुआ है। धार्मिक और व्यावसायिक दोनों कारणों से सहिष्णु तथा शान्तताप्रेमी जैन समाज पर, हिन्दुओं की अनेक धार्मिक रूढियों का तथा विधिविधानों का प्रभाव पडना बहुत ही स्वाभाविक बात है । इसी वजह से हिन्दु संस्कार, व्रत-वैकल्य, पूजाअर्चा आदि कर्मकाण्डप्रधान विधि-विधान, जैनियों ने भी थोडे संक्षिप्त रूप में तथा पंचपरमेष्ठी की महत्ता कायम रख के जैन धर्मानुकूल बनाए । हिन्दु पुराणों की तरह, जैन पुराणों की रचना करके विशिष्ट घटना, व्यक्ति से सम्बन्धित विविध व्रत तथा अनेक उद्यापन आदि भी प्रचलित हुए । तथापि 'पितर' संकल्पना सिद्धान्तों के बिलकुल ही विपरीत होने के कारण उन्होंने नहीं अपनायी ।
'पितर' संकल्पना के उल्लेख प्रायः सभी श्रुति, स्मृति, पुराण, रामायण, महाभारत तथा पूर्वमीमांसा दर्शन इ. ग्रन्थों में विपुल मात्रा में दिखायी देते हैं । इन संकल्पनाओं पर आधारित स्वतन्त्र ग्रन्थो की रचना भी हुई है। ब्राह्मण परम्परा के अनेकविध ग्रन्थों के पितरसम्बन्धी उल्लेखों कि सूचि कृपया ऑल इण्डिया ओरिएण्टल कॉन्फरन्स (AIOC), कुरुक्षेत्र, अधिवेशन ४४ जुलै २००८ में प्रस्तुत किया गया शोधपत्र |
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