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________________ जून - 2012 95 बड़ी बाधा यह भी है कि उनकी कृति महाराष्ट्री प्राकृत को अपने ग्रन्थ की भाषा नहीं बनाया है। यापनीयों ने सदैव ही अर्धमागधी से प्रभावित शौरसेनी प्राकृत को ही अपनी भाषा माना है / अतः आदरणीय पं. नाथुरामजी प्रेमी ने उसके यापनीय होने के सम्बन्ध में जो सम्भावना प्रकट की है, वह समुचित प्रतीत नहीं होती है / यह ठीक है कि उनकी मान्यताओं की श्वेताम्बरों एवं यापनीयों दोनों से समानता है, किन्तु इसका कारण उनका इन दोनों परम्पराओं का पूर्वज होना है - श्वेताम्बर या यापनीय होना नहीं / कालकी दृष्टि से भी वे इन दोनों के पूर्वज ही सिद्ध होते है / पुनः यापनीय आचार्य रविषेण और अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू द्वारा उनकी कृति का पूर्णतः अनुसरण करने पर भी उनके नाम का उल्लेख नहीं करना यही सूचित करता है कि वे उन्हें अपनी परम्परा का नहीं मानते थे / अतः सिद्ध यही होता है कि विमलसूरि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्परा के पूर्वज है / श्वेताम्बरों ने सदैव अपने पूर्वज आचार्यों को अपनी परम्परा का माना है / विमलसूरि के दिगम्बर होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता / यापनीयों ने उनका अनुसरण करते हुए भी उन्हें अपनी परम्परा का नहीं माना, अन्यथा रविषेण और स्वयम्भू कहीं न कहीं उनका नाम निर्देश अवश्य करते। पुनः यापनीयों की शौरसेनी प्राकृत को न अपनाकर अपना काव्य महाराष्ट्री प्राकृत में लिखना यही सिद्ध करता है कि यापनीय नहीं है। अतः विमलसूरि की परम्परा के सम्बन्ध में दो ही विकल्प है। यदि हम उनके ग्रन्थ का रचनाकाल वीर निर्वाण सम्वत् 530 मानते हैं तो हमें उन्हें श्वेताम्बर और यापनीयों का पूर्वज मानना होगा / क्योंकि श्वेताम्बर दिगम्बरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण के 606 वर्ष बाद और दिगम्बर श्वेताम्बरी की उत्पत्ति वीर निर्वाण के 609 वर्ष बाद ही मानते है / यदि हम इस काल को वीर निर्वाण सम्वत् मानते है, वे श्वेताम्बरों और यापनीयों के पूर्वज सिद्ध होगे और यदि इसे विक्रम संवत् मानते है तो जैसा कि कुछ विद्वानों ने माना है, तो उन्हें श्वेताम्बर आचार्य मानना होगा / C/o. प्राच्यविद्यापीठ शाजापुर (म.प्र.)
SR No.229626
Book TitlePaum Chariyam Ek Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size122 KB
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