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अनुसन्धान- ४१
तेनी टीकामां हरिभद्रसूरि महाराज कहे छे 'अत्यन्तस्थावर
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अनादिवनस्पतिकायमांथी नीकळीने, मनुष्य थई, मरुदेवी सिद्ध थयां. वृद्धसम्प्रदायमां कह्युं छे के आर्हत प्रवचनमां ५०० आदेशो एवा छे जेनो निर्देश - पाठ अंग- उपांगोमा नथी. आ पण तेमांनो ज एक आदेश छे.
आवश्यक निर्युक्ति ( श्लो. १३२० ) नी हारिभद्री टीकामां मरुदेवीनी कथा कही छे. तेमां तेमणे भगवान ऋषभनुं दर्शन कर्तुं होय के महाव्रतो ग्रहण कर्यां होय तेवो कोई उल्लेख नथी.
तेमने पूर्वजन्मोनी पण कोई स्मृति नहोती तेथी सम्यग्दर्शन प्राप्त करवा जरूरी सामग्री पण तेमनी पासे नहोती. वळी तेमणे एवां कयां पुण्य (क्यां- क्यारे) कर्यां हशे जेथी तेओ तीर्थंकरनां माता थयां ? अने आ मनुष्यभवमां पण तेमणे सम्यक्त्व क्यारे मेळव्युं हशे ?
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सम्यक्त्व पूर्वभवोनी स्मृतिथी अथवा तीर्थंकर / प्रतिमाना दर्शनथी अथवा महाशोक-विषादादिथी थाय. (अहीं नाभिकुलकरना मृत्युनी वात मात्र चउपन्नमहापुरिसचरियं मां ज आवे छे.) ऋषभदेव प्रत्येनो शोक तेवी आत्मिक समानतावाळो नहोतो के जेथी सम्यक्त्व थाय.
आ रीते जोईए तो सम्यक्त्वप्राप्तिनुं कोई पण कारण तेमनी पासे नहोतुं अने जैन सिद्धान्त प्रमाणे तो रत्नत्रयीनी पूर्णता ज मोक्ष अपावे. चउपन्नमहापुरिसचरियं मां शीलाङ्काचार्य थोडीक हकीकतो उमेरे
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छे :
ऋषभदेवने केवलज्ञान थयुं तेनी जाण भरतने थाय ते पहेलां ज इन्द्रो आवी समवसरणनी रचना करी. तेमां भगवाने देशना आपी पांच महाव्रतो समजाव्यां अने ८४ गणधरोनी स्थापना करी.
दरम्यान, भरतने जाण थतां ते मरुदेवीने हाथी पर समवसरण तरफ लई चाल्यो. त्यारे मरुदेवीए देवोना मुखेथी 'जय जय' एवा शब्दो सांभळ्या, साथै ज तेमणे तीर्थंकरनी अमृतमय देशना पण सांभळी अने ते सांभळतां ज मनां कर्मोंनो घणो मोटो भाग क्षय पाम्यो, तेमनी भ्रमणाओ भांगी गई, हृदयमां आनन्द फेलायो अने पुत्र प्रत्येना रागनां बन्धनो तूटी गयां तेओ क्षपक श्रेणि
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