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अनुसन्धान-५६
श्रीमतिकीर्त्यपाध्यायविरचिता स्वोपज्ञवृत्तिविभूषिता गुणकित्त्व - षोडशिका
म. विनयसागर
गुणकित्त्व-षोडशिका व्याकरण के एक लघु-अंश पर विचार-विमर्श करती है | व्याकरण शब्दों पर अनुशासन करता है अर्थात् शब्दों के उद्गम स्थान से लेकर उच्चारण पर्यन्त इसका अनुशासन चलता है । इन्हीं वर्णों से मन्त्र और तन्त्रों का भी निर्माण होता है । इसीलिए महाभाष्यकार भगवान पतञ्जलि भी कहते हैं कि 'एक शब्द के भी शुद्ध उच्चारण से समस्त प्रकार का मङ्गल होता है और स्वर या वर्ण का अशुद्ध उच्चारण शत्रु की तरह अनर्थकारी होता है ।' वैयाकरणों की यह मान्य परम्परा रही है कि वे शब्दों के लाघवमात्र से पुत्रजन्मोत्सव की तरह उत्सव मनाते हैं । लेखक परिचय :
मतिकीर्ति खरतरगच्छ की परम्परा में क्षेमकीर्ति शाखा में महोपाध्याय श्रीजयसोम के प्रशिष्य और गुणविनयोपाध्याय के शिष्य हैं । इनका कोई ऐतिहासिक परिचय प्राप्त नहीं होता है, किन्तु मतिकीर्ति में 'कीर्ति' नन्दी को देखते हुए दीक्षा समय का अनुमान किया जा सकता है | युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि स्थापित ४४ नन्दियों में 'कीर्ति'नन्दी का क्रमाङ्क ४०वाँ है | कीर्ति नामांकित सहजकीर्त्ति द्वारा सं० १६६१ में रचित सुदर्शन चौपाई, पुण्यकीर्ति द्वारा सं० १६६२ में रचित पुण्यसार रास, विमलकीर्त्ति द्वारा सं० १६६५ में रचित यशोधर रास आदि कृतियों के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि 'कीर्त्ति’नन्दी की स्थापना सं० १६५२-५५ के लगभग हुई होगी । अत: मतिकीर्त्ति का दीक्षाकाल भी यही है ।
गुणविनयजी के सहयोग के रूप में इनका उल्लेख सर्वप्रथम सं० १६७१ में मिलता है । 'निशीथचूर्णि' प्रति का संशोधन गुणविनयजी ने मतिकीर्त्ति की सहायता से किया था । उल्लेख इस प्रकार
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" संवत् १६७१ जैसलमेरदुर्गे श्रीजयसोममहोपाध्यायानां शिष्य