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फेब्रुआरी - २०१२
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कौन हो सकते हैं ? यह विचारणीय है। किन्तु इस हस्तलिखित ग्रन्थ में खरतरगच्छीय आद्याचार्यों की प्रायः कृतिया लिखी गई हैं । अतः श्री धनेश्वरसूरि श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य होने चाहिए । श्री जिनेश्वरसूरि, श्री बुद्धिसागरसूरि की शिष्य-परम्परा भी विशाल थी। श्री धनेश्वरसूरिजी की कृति सुरसुंदरीचरियं भी प्राप्त होती है । अतः इसका कर्ता जिनेश्वरसूरि शिष्य धनेश्वरसूरिजी ही मानना अधिक संगत होगा ।
संवेग से ही निर्वेद पैदा होता है और वैराग्यपूर्ण श्रद्धाभावना पैदा होती है । इस संवेगकुलक में पूर्वाजित कर्मोदय से इस जीव ने जो पीड़ा प्राप्त की है और विवेकरहित होकर विलाप किया है, उसका विवेचन है । रे जीव ! नरक और तिर्यंचगति की तीव्र वेदना और व्यथा का तुझे स्मरण नहीं है । स्थिरचित्त होकर पूर्व में बांधे हुए बन्ध, वध, मरणादि और प्राणों का नाश, उसका यह फल है । दीनों पर तुने कभी भी अनुकम्पा नहीं की है और मुनिजनों को भी औषधदान नहीं दिया है । यह अब अशुभ कर्म का उदय है । अनेक भवसंचित पापकर्मों का उदय है । तूं विवेकवान होकर इस वेदना को विवश होकर भोगने को अभिभूत हुआ है । गजसुकुमाल, सनत्कुमार आदि धीर पुरुषों के द्वारा वेदना को अनुभव करते हुए अपने जीव को स्थिर कर किया है और धन्नामहर्षि, स्कन्दकशिष्य, मेतार्य और चिलातीपुत्र आदि का स्मरण कर शुभध्यान में स्थिर हो जा । इन महापुरुषों ने भी कर्मोदय के उदय से तीव्र दुःख पाया है। इसलिए इस आर्त रौद्रध्यान को छोड़कर, धर्मध्यान में रक्त होकर सकल कर्मों का नाश कर मोक्षसुख को प्राप्त कर, ऐसी धनेश्वर की भावना है । इस कृति का आस्वादन करिए
संवेग कुलकम् गुरुवेयणविरहेण व जिणसासणभाविएण सत्तेण । सुहझाणसंधणत्थं सम्मं परिभावियव्वमिणं ॥१॥ पुव्वभवज्जियकम्मोदएण रे जीव, तुज्झ सइ पीडा । जाया देहे ता किं विलवेसि विवेयरहिय व्व ॥२॥ किं जीय ! नेय सुमरसि नारयतिरिएसु तिव्ववियणाओ । थोववियणा वि उदए संपइ जं विलवसे विरसं ॥३॥