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अनुसन्धान-५८
अहि वींछी अंधारइ अजुआलइ, पासइ टालइ जिनप्रतिपालइ । आवे नहीं मींचि त्यां गणकालइ, साचल जांसू निजरसूं निहालइ ॥२९॥ देश-विदेश सीयइ दाहू, माता समऱ्यां न हूवइ माहू । कोई रोग सोग नावइ काहू, चावंड निज चाहो हिव चाहू ॥३०॥ गुणउज्जल निर्मल तुझ गाऊँ, धणियाणी एक मना ध्यायूं । चरणाली अरज करण चाहूं, पहूरी परसिद्ध बहुरिद्ध पाऊँ ॥३१॥ सेवक जण दिन दिन सुखकरणं, हित सायर मन तन दुःख हरणं । तूं माय सहाय दूतर तरणं, सिचियाय नमो तो पाइ सरणं ॥३२॥ सतर चउसठइ जेठसइ गुरु आज्ञा श्री देवगुप्तगृही । मुनि ओइसगच्छ जयरतन मुही, कीर्ति श्रीसाचल मातकइ ॥३३॥
इति श्री सच्चायिका स्तुति
विशु
कठिन शब्दार्थ : सुध - शुद्धि | महिर - कृपा | विमुह - विमुख दिनचढ़ती - प्रतिदिन अंगी - अंगे धणीयाणी - स्वामिनी
खेवी - खेना नवनेवज - नवनैवेद्य करसण - किसन कंध - स्कन्ध
- विश्व मीचि - मृत्यु व्रण - वर्ण सांवल - श्यामल दूतर - दुस्तर सिचिचाय - सच्चायिका अवदाता - प्रसिद्धि | ध्यायी ___- दौड़कर आती अठील - यहाँ(?) उज्जड़ - उबड़-खाबड़ थिति - स्थिति
- समय प्रणपत्ति - नमस्कार अपनायत - अपनाकर अमि - अमृत गसगमणी - हाथी के समान नावइ - नहीं आता है | तोटो - कमी
चलने वाली - इतना जितरो - जितना चावंड - चामुंडा मोपरी - मेरे ऊपर
- याद प्रभवइ - प्रभावशील दालिद - दारिद्र दिलदा - दिल से | भौमपर - भूमि पर इसवाइ - ईश्वरी
साचल - सच्चायिका
समि
इतरो
जाद