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फेब्रुआरी - २०१२
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श्री जयरत्नकृत सच्चायिका बत्तीसी
म. विनयसागर
संग्रह के स्फुट पत्रों में अट्ठारहवीं शताब्दी लिखित एक पत्र प्राप्त है, जिसमें सच्चीयाय माता की स्तुति की गई है। ३३ पद्य होने से इसे बत्तीसी भी कहा जा सकता है । इसकी रचना संवत् १७६४ जेठ महीने (आषाढ़) में की गई है । उपकेशगच्छीय श्री देवगुप्तसूरि की आज्ञा से जयरत्नमुनि ने देवी की स्तुति की है। यह पूर्ण स्तुति राजस्थानी भाषा में है और कई देशी शब्द भी इसमें प्रयोग किए गए हैं ।
जयरत्नमुनि कुछ पुरातनप्रिय दृष्टिगत होते हैं । पुरातत्त्व की रक्षा करने की उनकी दृष्टि है । इसीलिए इस कृति के प्रारम्भ में अपभ्रंश भाषा के रूप में अरजइ, चरचइ, परसइ, घरइ, जनमइ इत्यादि में रूप दिए हैं । किन्तु उसके पश्चात् प्रचलित रूपों को ही देने का प्रयत्न किया है । पद्य ७ से ३३ तक प्रचलित रूप ही दिए हैं ।
कवि स्वयं ओइसगच्छ के है । अर्थात् अपभ्रंश भाषा की दृष्टि से उपकेशगच्छ के उवएसगच्छ = ओइसगच्छ = ओवेशगच्छ के रूपान्तर भी दिए हैं । कहा जाता है कि- श्री रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में उत्पलदेव को प्रतिबोध देकर ओसवंश की स्थापना की थी। तभी से यह गच्छ प्रसिद्धि में आ रहा है।
श्री रत्नप्रभसूरिने सत्यिका माता को प्रतिबोध देकर स्थापना भी की थी। वह पूर्ण अहिंसक थी, रत्नप्रभसूरिजी की भक्त थी और तभी से उपकेशवंश की परम्परा चली आ रही है। आज सच्चियाई माता का मन्दिर है वह जैनेतरों के कब्जे में है। किन्तु ओसवंश के स्थापक होने के कारण ओसवालज्ञाति के जितने भी गोत्र हैं, वे प्रायः इसी सच्चायिका माता को मानते हैं, ढोक देते हैं, मान्यता मानते हैं और पूजा भी करते हैं। कृति सुन्दर एवं पठनीय