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अनुसन्धान ३६
गीतोपदेश के प्रवाह में यह 'विश्वरूपदर्शन' विषय को समाविष्ट करने का कारण क्या है ? दार्शनिक दृष्टि से कम महत्त्व रखनेवाले इस काव्यमय, अद्भुत, रोमांचक, रौद्र वर्णन के मूलस्रोत कहाँ पाए जाते हैं ? वैदिक परम्परा के कौन-कौन से ग्रन्थों में इसका जिक्र किया है ? अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की तरह इसकी खोज करते करते हम ऋग्वेद के 'सहस्रशीर्षा पुरुष;' इस सूक्त तक पहुंच जाते हैं । ऋग्वेद का पुरुषसूक्त, यजुर्वेद का रुद्राध्याय, अनेक प्रमुख उपनिषद्, श्रीमद्भागवत तथा अनेक अन्य पुराण तथा गीता का अनुकरण करनेवाली अनेक अन्य गीताओं में किसी न किसी स्वरूप में 'विश्वरूपदर्शन' आता ही है । पं. सातवळेकरजीने इसका इतना विस्तृत विवेचन अर्थसहित किया है कि वह इस शोधलेख में हम दोहरानेवाले नहीं हैं । जिज्ञासु पण्डितजीकी टीका देखें । आद्य शंकराचार्य, डॉ. राधाकृष्णन, योगी अरविन्द, लोकमान्य टिळक तथा अन्य कई अभ्यासकों ने इस 'विश्वरूपदर्शन' की बहुत सराहना की है । सभी अध्यायों का सार, गीता-पर्वत का सर्वोच्च शिखर, गीता के सुवर्ण पात्र का मिष्टान्न आदि स्तुतिसुमनों द्वारा अलङ्कत ऐसे 'विश्वरूपदर्शन' का सही मूल्यांकन हम जैन दार्शनिक दृष्टि से करना चाहते हैं । (२) विश्वरूपदर्शन' का स्वरूप और वर्णन
इस परिच्छेद में गीता के विश्वरूपदर्शन का विस्तार से बयान नहीं किया है । घटनाक्रम तथा वर्णनक्रम उसी तरह रखके सिर्फ मुद्दे प्रस्तुत किये हैं । पूरा वर्णन ग्यारहवें अध्याय में होने के कारण सन्दर्भ भी नहीं दिये हैं । मुद्दों के अनन्तर हरेक पहलू का परीक्षण करेंगे । १. अर्जुन की विश्वस्वरूप देखने की जिज्ञासा, विश्वरूप देखने की असमर्थता। २. कृष्ण द्वारा सैंकड़ों हजारों रूप, नानाविध दिव्यवर्ण आदि से युक्त
आकृतियाँ इत्यादि दिखाना । देखने के लिए दिव्य चक्षु प्रदान करना । ३. संजय के द्वारा अनेक मुख, नयन, अलंकार, आयुध, माला, गंध वाली
आकृतियों का बयान, सहस्र-सूर्य-प्रभा का अनुभव करना । ४. अर्जुन के द्वारा दिव्य पुरुष के देह में सब प्राणिमात्र, ब्रह्मा, विष्णु,
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