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अनुसन्धान ३६
में मिल जाए तो आश्चर्य की बात नहीं है ।
सैद्धान्तिक भेद इतना ही है कि जैन दर्शन में 'परमेश्वर या परमात्मा के प्रति जाने की' बात नहीं हो सकती । जीव खुद ही परमात्मा है । रत्नत्रय की आराधना से जब जीव के सब कषाय और कर्मावरण दूर हो जाएंगे तो वह खुद ही परमात्मा बन जाएगा ॥४०
अभी तक ग्यारहवे अध्याय के मुद्दे ध्यान में रखकर मूल्यांकन किया है । अभी कुछ अन्य मुद्दों की विचारणा करके उपसंहार की ओर बढेंगे । विश्वरूप-दर्शन की जैन दार्शनिक दृष्टि से संक्षिप्त विचारणा * दोनों परंपराओं ने विश्वदर्शन के बारे में 'पुरुष' की संकल्पना अपनायी
है । गीता ने अद्भुत विराट पुरुष प्रस्तुत किया । जैन दर्शन त्रैलोक्य
का बाह्याकार विशिष्ट पुरुषाकृति बताता है, उसमें अद्भुतता नहीं है । * महाभारत में कृष्ण साक्षात् ईश्वर, परमेश्वर, परमात्मा एवं विष्णु का
अवतार है । धर्मसंस्थापना, साधुपरित्राण और दुष्कृतविनाश इसके प्रयोजन हैं । अवतारसमाप्ति के बाद वह मूलरूप में विलीन होता है। जैन दर्शन के अनुसार वह अनेकऋद्धिसंपन्न 'वासुदेव' तथा ६३ श्लाघा (या शलाका) पुरुषों में एक है । शत्रुहनन इत्यादि कार्यों के परिणामों के अनुसार वह नरकगति में गया है । अगले भवों में
मोक्षगामी होगा । * श्रीमद्भागवत में कृष्ण ने यशोदामाता को अपने मुख में विश्वरूपदर्शन
करवाया था, परंतु इस विश्वदर्शन से वह भिन्न है । जैन दर्शन में
तीर्थंकर, केवली आदि विश्वरूप कथन करते हैं, प्रत्यक्ष दिखाते नहीं। * अर्जुन कृष्ण की कृपा से दिव्य दृष्टि पाता है । संजय तथा व्यास को
भी दिव्य दृष्टि है। जैनदर्शन में किसी भी प्रकार का दर्शन कोई एक दुसरे को नहीं करवा सकता । दर्शन तो उसी जीव के दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम आदि से होता है, किसी की कृपा से नहीं ।
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