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अनुसन्धान- ४०
सुख और दुःख
की संवेदना होती है। कटा हुआ वृक्ष फिर जोर फूटता है । इसलिए वृक्ष में 'जीव' है, वे अचेतन नहीं, 'सचेतन' ही हैं । वृक्ष ने भूमि से शोषण किये हुये जल का, उष्णता और वायु की मदद से पचन होता है । यह जलाहार उसमें स्निग्धता का निर्माण करता है और उसकी वृद्धि भी करता है ३ मूल प्रकृति में अहंकार से भिन्न-भिन्न पदार्थ बनने की शक्ति प्राप्त होने पर विकास की दो शाखायें होती हैं । एक - वृक्ष, मनुष्य आदि सेन्द्रिय प्राणियों की दृष्टि और निरिन्द्रिय पदार्थ की सृष्टि | ३४
वृक्ष को
से
वैज्ञानिक दृष्टि से वनस्पति सजीव है । इन्द्रियधारी जीवों की तरह उनमें स्पष्ट रूप से एक भी इन्द्रिय मौजूद नहीं है । लेकिन सभी इन्द्रियों के कार्य वनस्पति अपनी त्वचा के माध्यम से ही करती है । इस दृष्टि से देखें तो उन्हें 'स्पर्शनेन्द्रिय' है ऐसा माना जा सकता है । उनको दूसरों के अस्तित्व की संवेदना त्वचा से ही होती है । रसनेन्द्रिय का काम रस का ग्रहण है और वनस्पति में स्पष्ट मात्रा से मूल और उपमूलों के द्वारा होता है । फिर भी श्वासोच्छ्वास, अन्य निर्मिती आदि रूप से पत्ता, तना आदि भी इस रस के ग्रहण की प्रक्रिया में शामिल होते हैं । इस प्रकार यह कार्य भी त्वचा से निगडित है । उनमें गन्ध की संवेदना होने का प्रयोग वैज्ञानिक रूप से अभी उपलब्ध नहीं है । अस्तित्व की संवेदना तो उन्हें होती है । आसपास के सजीव, निर्जीव सृष्टि के रंगरूप की संवेदना के बारे में कहा नहीं जा सकता। लेकिन रंगरूप के विशेष ज्ञान के लिए जो विशेष ज्ञानशक्ति आवश्यक है उस तरह का विकास उनमें नहीं है ! क्योंकि उनमें संवेदना करानेवाली मज्जासंस्था या भेजा मौजूद नहीं है । सुमधुर गायन इत्यादि का अनुकूल परिणाम वनस्पतियों पर होता है । इस विषय का संशोधन किया गया है, फिर भी ध्वनि की लहरें, कम्पन के द्वारा उनकी त्वचा से स्पर्श करती हैं और उन्हें ध्वनिसंवेदना होती है । अलग श्रवणेन्द्रिय की कोई गुंजाईश नहीं है ।
साम्य के आधार से कहा जाय तो फूलवाली वनस्पतियों का ३३. महाभारत, शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व) अध्याय १८४, ६-१८
३४. गीतारहस्य पृ. १०५
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