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जुलाई-२००७
प्रायः वैज्ञानिक मान्यता से मेल खाता है । फर्क केवल इतना ही है कि आकाश की उत्पत्ति आत्मा परमात्मा और परमेश्वर से जोडना विज्ञान को मंजूर नहीं। ये पाँच महाभूत हैं और वे जड हैं ।
जैन दृष्टि से लोक जीव एवं अजीव इन दो (राशि) द्रव्यों से व्याप्त है। इनमें से जीवद्रव्य के इन्द्रियानुसारी पाँच भेद हैं । उनमें एकेन्द्रिय जीव पाँच हैं । जैसे कि पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजसकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । सूत्रकृतांग में कहा है कि पानी, हवा, आकाश, काल और बीज का संयोग होने पर ही वनस्पति की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं । यह मत भी वैज्ञानिक दृष्टि से उचित है। लेकिन इन सबको एकेन्द्रिय कहना और स्वतन्त्र जाति मानना जैनदर्शन की विशेषता है । पाँचों एकेन्द्रिय की उत्पत्ति एक दूसरे से नहीं हुई है । जगत् परिवर्तनशील है और अनादिनिधन है । इसका मतलब यह हुआ कि ये पाँचों एकेन्द्रिय पहले से ही सृष्टि में मौजूद हैं । (२) वनस्पति की योनि (उत्पत्तिस्थान) -
दोनों परम्परायें योनिसंख्या ८४ लक्ष मानती हैं। इनमें वनस्पति की योनियाँ मान्यतानुसार २४ लक्ष और वैदिक मान्यतानुसार २१ लक्ष हैं । वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह संख्या वस्तुस्थिति के बहुत ही नजदीक है । वर्गीकरण के आधुनिक निकष अनुपलब्ध होने पर भी लगभग ३००० वर्ष पहले यह संख्या कथन करना एक आश्चर्यकारक बात ही है । (३) स्थान : - जैन मान्यता के अनुसार वनस्पतिसृष्टि तीनों लोकों में हैं । सांख्यदर्शन की मान्यतानुसार अधोलोक में वनस्पतिसृष्टि है । लेकिन पौराणिक २. भगवती शतक २५, उद्देशक २, सूत्र १; त्रिलोकप्रज्ञप्ति १.१३३ ३. अणुयोगद्वार सूत्र २१६ (५,६) ४. सूत्रकृतांग २.३.२ ।। ५. तत्त्वार्थसूत्र ५.२ की टीका ६. भारतीय संस्कृति कोश ७. उत्तराध्ययन ३६.१०० ८. सांख्यकारिका ५४
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