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जुलाई - २००७
कि हिरन जैसे चर प्राणी तृण जैसे अचर पदार्थ खाते हैं । व्याघ्र जैसे तीक्ष्ण दाढावाले प्राणी हिरन जैसे प्राणियों को खाते हैं । विषधारी साप निर्विष दुबले सापों को निगलते हैं । ३९ 'बलशाली जीव निर्बल जीवों का आहार करते हैं।' इस प्रकार के उल्लेख वैदिक साहित्य में विपुल मात्रा में पाये जाते हैं जैसे कि 'जीवो जीवस्य जीवनम् ।' मनुस्मृति में भी इसका निर्देश हैविज्ञान में प्रचलित जो अनशृङ्खला है उसके संकेत वैदिक साहित्य से मिलते हैं । आहार के बारे में मनुस्मृति कहती है कि
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प्राणस्यान्नमिदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत् ।
स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम् ॥
वनस्पति का औषध में प्रयोग :
चरक संहिता के आरम्भ में कहा है कि आयुर्वर्धन तथा रोगनिवारण ४२ इन दोनों हेतु चरक ने विविध प्रकार के कल्प, कल्क, चूर्ण, कषाय आदि औषधप्रकारों का निर्देश किया है । औषध बनाये जाने का स्पष्ट निर्देश चरकसंहिता में है यथा - वनस्पति से, मेद से, वसा से, चरबी से । ४३ चरकसंहिता ग्रन्थ के परिशिष्ट - २ में दी हुई तालिका से स्पष्ट है कि प्रस्तुत वर्गीकरण में वनस्पति द्रव्यों को ही प्रधानता है । वनस्पति के मूल, छाल, सार, गोंद, नाल ( डण्ठल ), स्वरस, मृदु पत्तियाँ, क्षार, दूध, फल, फूल, भस्म (राख), तैल, काँटें, पत्तियाँ, शुङ्ग (टूसा), कन्द, प्ररोह ( वटजटा) इन १८ अवयवों का प्रयोग औषधि बनाने के लिए किया जाता है ।" वैदिकों की जीवन जीने की दृष्टि बिलकुल अलग है। वह निवृत्तिगामी या निषेधात्मक नहीं है । सुखी, समृद्ध, निरोगी जीवन, उल्हास और उमंगपूर्वक उत्साह से जीना यह वैदिक परम्परा का विशेष है । इसी तरह से वनस्पतियों का खुद
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३९. महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ८९, २१ - २६
४०. मनुस्मृति ५.२९
४१. मनुस्मृति ५.२८
४२. अथातो दीर्घज्जीवितीयअध्यायं चरकसंहिता सूत्र १
४३. चरकसंहिता ७३
४४. चरकसंहिता ७३
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