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डिसेम्बर २००८
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तारुण्य की स्थापना तथा आयु और बुद्धि के बढ़ाने और रोग शान्त करने के लिए चिकित्सा), (८) वाजीकरण (अथवा खारतंत क्षारतन्त्र; अल्पवीर्य, क्षीणवीर्य और शुष्कवीर्य पुरुषों में वीर्य की पुष्टि, वीर्य का उत्पादन और हर्ष उत्पन्न करने का उपाय ) १ ।
रोग और व्याधि
छेदसूत्रों के टीकाकारों ने रोग और व्याधि में अन्तर बताते हुए, अधिक समय तक रहने वाली अथवा बहुत समय में प्राणों का अपहरण करने वाली बीमारी को रोग, तथा प्राणों का शीघ्र अपहरण करने वाली बीमारी को व्याधि कहा है (निशीथभाष्य ११.३६४६-४७) । व्याधि को आतंक भी कहा गया है सोलह प्रकार के रोग और सोलह प्रकार की व्याधियां बतायी गयी है।
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आचारांग सूत्र (६.१.१७३ तथा टीका) में सोलह रोगों के नाम निम्न प्रकार हैं- (१) गंडी (गंडमाला; जिस में गर्दन फूल जाती है), (२) कुष्ठ (कोढ़), २ (३) रायंसी (राज्यक्ष्मा = क्षय), (४) अवमारिय ( अपस्मार), (५) १. सुश्रुतसंहिता ( १. १.७ ) में शल्यतन्त्र, शालाक्यतन्त्र, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौ भारभृत्य, अगदतन्त्र, रसायनतन्त्र और वाजीकरणतन्त्र इस क्रम से आठ अंग बताये हैं । इन में कायचिकित्सा और शल्यतन्त्र को छोड़कर अन्य अंगों के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । धन्वन्तरि के समय से ही कायचिकित्सा को छोड़कर अन्य सम्प्रदाय प्राय: विलुप्त हुए माने जाते हैं ।
२. कुष्ठ १८ प्रकार का होता हैं ७ महाकुष्ठ और ११ क्षुद्रकुष्ठ । महाकुष्ठ (अंग्रेजी में लेप्रसी) को शरीर की समस्त धातुओं में प्रवेश करने के कारण असाध्य कहा है । महाकुष्ठ के सात भेद हैं- (१) अरुण (वात के कारण किंचित् रक्तवर्ण, क्षुद्र आकार का, फैलनेवाला, पीड़ा देनेवाला, फटनेवाला और स्पर्श की चेतना से शून्य), (२) औदुम्बर (पित्त के कारण पके गूलर के समान आकृति और वर्णवाला), (३) निश्य (यह पाठ अशुद्ध जान पड़ता है। सुश्रुत में इसे ऋष्यजिक कहा है, अर्थात् ऋष्य नामक हरिण की जीभ के समान खुरजरा), (४) कपाल (काले ठीकरे के समान प्रतीत होनेवाला), (५) काकनाद (सुश्रुत में काकणक; गुंजाफलके समान अत्यन्त रक्त और कृष्णवर्णवाला, काश्यपसंहिता (पृ. ८२) में काकणं), (६) पौण्डरीक (सुश्रुत में पुण्डरीक; कफ के कारण श्वेत कमलपत्र के समान वर्णवाला; काश्यपसंहिता में पौण्डरीक), (७) दद्रु (दाद; अतसी के पुष्प के समान नीलवर्ण अथवा ताम्रवर्णवाला, फैलनेवाला; इसमें छोटी
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