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अनुसन्धान ४६
के कारण शल्यचिकित्सा को आयुर्वेद का मुख्य अंग मान लिया गया । जैनों की आयुर्वेद सम्बन्धी मान्यता
जैन ग्रन्थों में आयुर्वेद (चिकित्साशास्त्र) का महत्त्व प्रतिपादन किया गया है, लेकिन फिर भी आश्चर्य की बात है कि उसकी गणना पापश्रुतों में की है । निशीथचूर्णी (१५, पृ. ५१२ ) में धन्वन्तरि का योगी (आगमोक्त विधि से क्रिया करने वाला; आगमानुसारेण जहुत्तं किरियं करेंतो जोगीव भवति) के रूप में उल्लेख करते हुए कहा है कि अपने विभंगज्ञान द्वारा रोगों का परिचय प्राप्त कर उसने वैद्यकशास्त्र का निर्माण किया, और इस शास्त्र का अध्ययन करने वाले महावैद्य कहलाये ।
आयुर्वेद के आठ अंग :
सुश्रुत आदि ब्राह्मण ग्रन्थों की भांति जैनों के स्थानांग सूत्र (८, पृ. ४०४ अ) में आयुर्वेद के निम्नलिखित आठ अंगों का उल्लेख किया गया है- (१) कुमारभिच्च (कौमारभृत्य; बालकों के पोषण के लिए स्तनपान सम्बन्धी तथा अन्य रोगों की चिकित्सा), (२) सलाग ( शालाक्य; कर्ण, मुख, नासिका आदि शरीर के ऊर्ध्वभाग के रोगों की चिकित्सा), (३) सल्लहत्थ ( शाल्यहत्य; तृण, काष्ठ, पाषाण, रजःकण, लोहा, मिट्टी, अस्थि, नख आदि शल्यों का उद्धरण), (४) कायतिगिच्छा (कायचिकित्सा; शरीर सम्बन्धी ज्वर, अतिसार आदि रोगों की चिकित्सा), (५) जंगोली अथवा जंगोल (कौटिल्य अर्थशास्त्र में जांगलि; सर्प, कीट, लूता आदि तथा विविध प्रकार के मिश्रित विष की चिकित्सा । सुश्रुत में इसे अगदतन्त्र कहा है), (६) भूयविज्जा (भूतविद्या देव, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस आदि से पीड़ित चित्तवालों की शान्तिकर्म और बलिदान आदि द्वारा चिकित्सा), (७) रसायण (रसायन; १. उत्पात, निमित्त, मन्त्रशास्त्र, आख्यायिका, चिकित्सा, कलाएँ, आवरण (वास्तुविद्या), अज्ञान ( महाभारत आदि - टीका), मिथ्याप्रवचन (बुद्धशासन आदि-टीका ) - ये पापश्रुत हैं, स्थानांग ९.६७८ ।
२. सुश्रुत के अनुसार ब्रह्माने दक्षप्रजापति को दक्षप्रजापतिने अश्विनीकुमारों को, अश्विनीकुमारोंने इन्द्र को, इन्द्रने धन्वन्तरिको और धन्वन्तरिने सुश्रुत को आयुर्वेद की शिक्षा दी ।
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