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प्राचीन जैन साहित्य में आयुर्वेद तथा भगवान् महावीर का गर्भापहरण
डा. जगदीशचन्द्र जैन
अनुसन्धान ४६
( भूमिका : स्व. डो. जगदीशचन्द्र जैन प्राकृत साहित्य के जाने-माने विद्वान् थे । उनका यह अप्रकाशित लेख डो. मधुसूदन ढांकीने भेजा है। चूंकि इस लेख में एक ऐसा विवादास्पद मुद्दा छेड़ा गया है कि जिसे छापने से सम्प्रदाय में विरोध हो सकता था, इसलिए पं. दलसुख मालवणिया समेत किसी विद्वान्ने इसे प्रकाशित नहीं किया था । लेकिन एक घटनाको लेकर बुद्धिमान् या विचारशील लोग क्या सोच व मान सकते हैं, उसकी जानकारी भी हमें मिलनी तो जरूर चाहिए । इसी आशय से यहां वह लेख यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है । मैंने डॉ. ढांकी को कहा कि इसके प्रतिवाद के रूप में मैं मेरा यानी परम्परा का मन्तव्य भी लिखुंगा । उन्होंने प्रेमपूर्वक सहमती दर्शाई कि जरूर लिखें । अतः डॉ. जैन का लेख व उसका प्रतिवाद दोनों यहां प्रस्तुत है । शी.)
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आयुर्वेद का अर्थ है आयुको जानने वाला शास्त्र, अर्थात् जिस शास्त्र में आयु के सम्बन्ध में विचार किया जाता हो अथवा जिस शास्त्र के द्वारा दीर्घ आयुकी प्राप्ति होती हो, उसे आयुर्वेद कहते है (आयुरस्मिन् विद्यतेऽनेन वा आयुर्विन्दतीत्यायुर्वेदः) । इससे यही सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत के आर्य जीवित रहने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे । 'तू सौ शरद् ऋतुओं तक जीवित रह' (त्वं जीव शरद: शतम्) ऋग्वेद का यह वाक्य, तथा दीर्घ जीवन की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला आयुष्टोम यज्ञ इस कथन के साक्षी हैं ।
वेदों की संख्या चार है - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । इन चार वेदों के चार उपवेद हैं- ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद (व्यास के चरणव्यूह और शंकर के आयुर्वेद के मतानुसार; जबकि सुश्रुतसंहिता और हत्यायुर्वेद में उसे अथर्ववेद का उपवेद कहा है), यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद, सामवेद का उपवेद गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्यशास्त्रवेद बताया गया है । सुश्रुतसंहिता के आयुर्वेदोत्पत्ति अध्याय में
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