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July-2002
प्रायः प्राप्य नथी, तेथी लागे छे के १५मा शतक आसपास जैन कर्मकांडोमां आ वस्तुने प्रवेश मळ्यो होवो जोईए. अलबत्त, बौद्ध परंपरामां तो आ धारणीनो प्रचार विक्रमनी त्रीजी सदीमां हशे तेम लागे छे. जैनोए तेनुं ज अनुसरण कर्यु छे.
परंतु 'वसुधारा'नी विभावना तो जैन धारामां पण बहु पुराणी छे. जैन तीर्थंकरो तथा विशिष्ट तपस्वी मुनिओ ज्यारे तपनां पारणे आहार ग्रहण करे, त्यारे ते गृहस्थना आंगणे पांच दिव्य प्रगटे छे, तेमां वसुधारा पण थती होवानी वात जैन आगमो वगेरेमां प्रसिद्ध छे. तीर्थंकरोना च्यवन (अवतरण) पछी तथा जन्म समये पण आवी वसुधारा थती होय तेनुं वर्णन पण मळे ज छे. भगवती-विवाहपन्नत्तीसूत्र नामे पांचमा अंग-आगमसूत्रना १५मा शतकमा 'वसुधारा वुढा' एवो; तो कल्पसूत्रमा 'वसुहारवासं च वासिंसु' एवो पाठ उपलब्ध छे. समवायांगसूत्र तथा सूत्रकृतांग अने ज्ञाताधर्मकथांग वगेरे सूत्रोमां पण आवा उल्लेखो मळी रहे छे. तो हरिभद्रसूरिनी 'समराइच्चकहा'मा 'न सव्वहा मंदपुण्णाणं गेहे वसुहाराओ पडंति' एवो पाठ जोवा मळे छे. आ तमाम उल्लेखोगत 'वसुधारा'नो संबंध तप वगेरेना प्रभावने कारणे दिव्य शक्तिओ द्वारा थती धननी वृष्टि साथे समजवानो छे.
एवी कल्पना थाय के पहेलां तो तपश्चर्यानो तीव्र प्रभाव ज देवोने वसुधारा करवानी प्रेरणा आपतो हशे. पण कालांतरे-समयना वीतवा साथे तप करवानी वृत्ति तथा तेवा तपस्वीमां होवी जोईती निरीहतानो हास थतो गयो, अने 'मारी के मारा भक्तनी पासे धन होवु जरूरी छे' तेवी स्पृहा वधती गई, तेथी आवां मांत्रिक कर्मकांड अने ते माटेना पाठ तथा आम्नायोनुं सर्जन थयुं हणे. ए मंत्र तथा अनुष्ठानथी आकर्षाता देवो वसुधारा वरसावता हशे के भक्त- उपासकने धनसंपत्ति आपतां हशे. एक समय एवो हतो के वैदिक, बौद्ध, जैन ए त्रणे धाराओ भारत वर्षमां महदंशे सर्वत्र सहअस्तित्व धरावती हती; अने वळी ते धाराओ वच्चे मुठभेडो पण थया करती, तो आवी बाबतोर्नु आदान-प्रदान पण थतुं रहेतुं. आवा कोई मोके वसुधारा धारणीने जैनोए अपनावी होय तो बनवाजोग छे. जोके आनो कोई आधारपुरावो न मळे. डो. बनारसीदास जैने नोंध्यु छ के
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