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अनुसन्धान ३६
लाभानन्दजी सुगुणचन्द्र को अष्टसहस्त्री प्रसन्नतापूर्वक पढ़ा रहे हैं । अष्टसहस्त्री आकर और उच्चतम दार्शनिक ग्रन्थ है । जिस पर न्यायाचार्य श्री यशोविजयोपाध्यायजी ने टीका लिखी है । इस ग्रन्थ का सामान्य विद्वान् अध्ययन नहीं कर सकता । उस पर भी उस ग्रन्थ को पढ़ाने का दायित्व लाभानन्दजी संभाल रहे हैं। स्पष्ट है कि लाभानन्दजी सामान्य विद्वान् नहीं थे, उच्चकोटि के विद्वान् थे, पारङ्गत मनीषी थे। क्योंकि चिन्तन के बिना इस ग्रन्थ को पढ़ाना सम्भव नहीं था । पढ़ने वाले सुगुणचन्द्र भी समर्थ विद्वान् थे । इसी कारण लाभानन्दजी के पास प्रसन्नतापूर्वक पढ़ रहे थे ।
आनन्द 'नन्दी' देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि जब तक वे लाभानन्दजी रहे तब तक वे खरतरगच्छ के ही थे। ज्यों ही सब कुछ उपाश्रय, परिग्रह, नाम इत्यादि का त्याग कर अवधूत आनन्दघन बने तो वे सब गच्छादि से मुक्त हो गए और सर्वमान्य हो गए। वे परम आगमिक, दार्शनिक, आत्मानन्दी और रहस्यवादी विद्वान् थे । यही कारण है कि उनकी चौवीसी और पद दर्शनशास्त्र के गूढ रहस्यों से परिपूर्ण होने के कारण वे सार्वजनीन हो गए। किसी गच्छ के न रहे, किसी परम्परा के न रहे । आज श्वेताम्बर समाज आनन्दघनजी को योगीराज ही मानता आया है और उनकी कृतियों को सर्वदा सिर चढ़ाता आया है । ऐसे योगीराज को मेरा कोटिशः नमन ।
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[सम्पादकनी नोंध : आनन्दघनजीने तपागच्छवाळा तपागच्छीय तरीके स्वीकारे छे, अने खरतरगच्छवाळा खरतरगच्छना माने छे. डॉ. कुमारपाल देसाईए पोताना आनन्दघनविषयक शोधप्रबन्धमा आ विशे विशद चर्चा करीने तारणो आप्यां छे. वास्तवमां आ मुद्दो आनन्दघनजीनी सर्वमान्यता नोज संकेत आपे छे. अन्य गच्छना मुनि अन्यगच्छीय पासे पण भणता ज हता अने होय छे, ते मुद्दो पण वीसरवो न जोईए.
एक बीजी विशिष्ट वात ए नोंधवी छे के अमारा परमगुरु शासनसम्राट विजयनेमिसूरि महाराजनुं चरित्रलेखन करवानो प्रसंग आव्यो, त्यारे तेमना जीवननी दस्तावेजी नोंधनां पृष्ठो फेरवतां एक विलक्षण वात नोंधायेली मळी आवी. ते वात आवी छे : 'तपगच्छना धुरन्धर अने उद्भट विद्वान् उपाध्याय श्री धर्मसागरजी महाराज, आनन्दघनजी पासे भगवतीसूत्रनी वाचना
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