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June-2006
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सूझता ऽऽचमन करिस्यइ, पूज्यजी मालूमछइ, हुं सुं लिखू थोड़इ लिख्यइ घणउ अवधारेज्यो । वलतां समाचार तुरन्त प्रसाद करावेज्यो ।
पं. जयरंग, पं. तिलकचन्द्र, पं. चारित्रचन्द, पं. सुगुणचन्द, चि. मानसिंह, चि. बालचन्द .... वन्दना अवधारेज्यो ।
॥ पं. सुगुणचन्द अष्टसहस्त्री लाभाणन्द आगइ भणइ छइ ऽद्धरइ टाणइ भणी । घणउ खुसी हुई भणावइ छ ।
अत्रना श्रीसंघरी वंदणा । श्रा. सुजाणदे श्रा. नाह ... श्रा अहंकारदे, संसारदे, केसरदे, प्रमुखरी वन्दना ऽवधारेज्यो | आसु सूदि १२ वा. हीररत्नजी नइ वन्दना वांचेज्यो ।
xxx चौड़ाई ११ और लम्बाई २०.५ से.मी. है ।
यह पत्र सूरत में विराजमान श्रीजिनरत्नसूरिजी के पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरिजी को लिखा गया है । मेड़ता से उपाध्याय पुण्यकलशजी, श्री जयरंग, श्रीतिलोकचन्द्र, श्री चारित्रचन्द्र आदि शिष्य समुदाय के साथ लिखकर भेजा है। मिति आसोज सुदि १२ दी है किन्तु संवत् नहीं दिया है। श्रीजिनचन्द्रसूरि का आचार्यकाल विक्रम संवत् १७०० से १७११ है । अतः यह पत्र इसी मध्य में लिखा गया है। पत्र का प्रारम्भ संस्कृत के शार्दूलविक्रीडित छन्द में १४ श्लोकों में किया गया है जो आचार्य के विशेषणों से परिपूर्ण है।
_ इसके पश्चात् सारा का सारा पत्र राजस्थानी भाषा में लिखा गया है जिसमें यह दर्शाया गया है कि उपाध्याय पुण्यकलशजी का अपने शिष्य वृन्द के साथ चातुर्मास मेड़ता में है। पर्युषण पर्व पर धर्माराधन इत्यादि का उल्लेख किया गया है । और चाहते हैं कि आचार्यश्री आदेश दें तो नागोर की तरफ विहार करें ।
इस पत्र की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना का जो उल्लेख किया गया है वह
है :
॥ पं. सुगुणचन्द अष्टसहस्री लाभाणन्द आगइ भणइ छई उद्धरइ टाणइ भणी । घणउ खुसी हुई भणावइ छइ ।
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