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अनुसन्धान ४६
कम्मादाणाई जाणियव्वाई, न समायरियव्वाइं, तं जहा - इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडीकम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिज्जे लक्खवाणिज्जे रसवाणिज्जे विसवाणिज्जे केसवाणिज्जे जंतपीलणकम्मे निलंछणकम्मे दवग्गिदावणया सरदहतलायसोसणया असईजणपोसणया ।२
अर्धमागधी मूलसूत्र 'आवश्यक' में छठे प्रत्याख्यान अध्ययन में भी उपासकदशा के समान ही कर्मादानों का विवरण है ।।
तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय के सोलहवें सूत्र के भाष्य में, अशनपान आदि का परिमाण करने के लिए कहा है । स्वोपज्ञ भाष्य में पन्द्रह कर्मादानों का उल्लेख नहीं है। सिद्धसेनगणिकृत टीका में भाष्य के आधार से 'आदि' शब्द के अन्तर्गत पन्द्रह कर्मादानों का उल्लेख किया है। वहाँ स्पष्ट कहा है कि, 'प्रदर्शनं चैतद् बहुसावद्यानां कर्मणां, न परिगणनमित्यागमार्थः ।'
इससे स्पष्ट होता है कि तत्त्वार्थभाष्य के काल में (लगभग पाँचवी सदी) १५ कर्मादानों की कल्पना दृढमूल नहीं थी । लेकिन सिद्धसेनगणि के काल तक (लगभग आठवी-नवमी सदी) पन्द्रह कर्मादानों की धारणा, उपदेश तथा प्रवचनों के द्वारा दृढ होती चली होगी । इसी वजह से उन्होंने पन्द्रह कर्मादानों का परिगणन सर्वसमावेशक न होने का जिक्र किया होगा।
आचार्य हरिभद्र ने आठवी शताब्दी में जैन महाराष्ट्री भाषा में श्रावकधर्म का विवेचन करनेवाले श्रावकप्रज्ञप्ति तथा श्रावकधर्मविधिप्रकरण नाम के दो स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं । तथा पंचाशक और पंचवस्तुक इन ग्रन्थों में भी श्रावकव्रतों का निरूपण किया है। इन सभी ग्रन्थों में उन्होंने भी पन्द्रह कर्मादानों का अतिचार के रूप में ही प्ररूपण किया है । तथापि स्पष्टतः उद्धृत किया है कि, 'भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादेव अवसेयः ।' पन्द्रह कर्मादानों की गिनती सर्वसमावेशक नहीं है, यह दर्शानेवाला तत्त्वार्थसूत्रभाष्य की सिद्धसेनगणिकृत टीका का ही उपरोक्त वाक्य हरिभद्र ने उद्धृत किया
कर्मादानों का सुविस्तृत विवेचन श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र की रत्नशेखरसूरिकृत टीका में उपलब्ध है । इन पन्द्रह कर्मादानों से जुड़े हुए बहुतसे व्यवसायों
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