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फेब्रुआरी २०११
श्लोकमां गुरु-शिष्यना सम्बन्धो तथा परम्परामां आजे आवी गयेली विरसता प्रत्ये संकेत थयो छे. जरा वधु व्यापकताथी जोईए तो शाळा-कॉलेजयुनिवर्सिटीओमां विद्यार्थीओने प्राध्यापको प्रत्ये आदर क्यां बच्यो छे ? तो प्राध्यापकवर्ग पण तेमने भणावे छे खरो ? आ स्थितिमां गुरुकुलवास क्यां टके (श्लोक ९)? धरती खोदी काढी, पहाडो तोड्या, वनो काप्यां, आथी जन्तुओने रहेवानां स्थानो नष्ट थयां. हवे ते जन्तुओ आपणी वसतिमां न आवे, न उभराय तो क्यां जाय ?
आ काळमां देवो केम आवता नथी ? आपणने आटली तकलीफो छे, धर्मने घणी जरूर पण छे, तो देवो फरज समजीने पण के दयाभावथी पण केम न आवे? खरेखर देवो हशे ज नहि ! - आ प्रकारनी विकल्पजाळ दरेक व्यक्तिना चित्तमां प्रगटती होय छे. आचार्ये एक ज वाक्यमां तेनो जवाब आपी दीधो छे (श्लोक १०). पिता-माताने छेह देवो, घरडांघरने हवाले करवां इत्यादि घटमाळनी तेमज सासु-वहू वच्चे जोवा मळता विसंवादनी वात पण तेमणे आ ज श्लोकमां करी छे.
११मो श्लोक जरा आकरो लागे. परन्तु आजनी स्त्रीमां, युवतीमां जे छाकटापणुं, अंगोनुं प्रदर्शन करतां वस्त्रोनी फेशन, स्थल-समयनी तथा नानामोटानी मर्यादा तूटे ते रीते करवामां आवतां चेनचाळा के नखरां - आ बधुं जोईए छीए त्यारे आचार्य, दर्शन केटलुं दूरगामी हतुं ते समजाई शके छे.
१२मा श्लोकनो सम्बन्ध जैन धर्म साथे खास छे. आजे श्रावकश्राविका क्यां रह्यां छे ? वाणिया छे, भक्तजनो छे, धर्मी लोको पण हशे; परन्तु जैन धर्मना तमाम व्रतनियमोनुं ग्रहण तथा पालन करनारा जनो क्यां छे ? तो दान-शील-भावनी शास्त्रवर्णित स्थिति पण भाग्ये ज जोवा मळे. दान सोदाबाजी जेवां लागे-घणीवार, तो तप तो वेचाऊ चीज जेवू बनावी देवायुं छे ! शील प्रत्ये भारोभार दुर्लक्ष्य छे. संघोमां संघजमण थाय तेमां पण भक्षाभक्ष्यविवेक, जयणापालन वगेरे नथी सचवाता. फलतः संयमीओ ते रसोई ग्रहण न करे, तो कोईनुं रूंवाडं य न फरके ! एमने न लेवं होय तो आपणे शुं करीए? अथवा खोटुं बोलीने आपे. आ स्थितिनुं मार्मिक बयान १२ मो श्लोक आपी जाय छे.