________________ 25 यः स्वभावज यः स्वभावज-भक्तिभावेन भवतो जिनराज ! नतिमभितनोति ननुकृतसमीहित ! / हितशासन ! सनरेन्द्रसुरकिंनरेन्द्रखेचरेन्द्रसेवित ! // वितमाः स भवति भवतिरस्कारविशारद ! धीर! / धीरमणीयवच:प्रचय ! सकलजगत्रयवीर ! इति चतुर्विंशतिजिननमस्काराः समाप्ताः // // 25 // पाठान्तर: 1. सरससभा० // 2. शम० / / 3. शम्भव० / / 4. 0 वन्दारु // 5. पांथपति० / / 6. भवमारवमार्गगत० // 7. मा ! 8. रत्नोज्ज्वलमुकुटफण-विकटरोचिरोचितदिगन्तर / / ९.०कुलवचनसंनिभ॥ 10. चन्द्रप्रभजिन साति०॥ ११.०शासिन० / / जननिश्रेय० // 13. ०धव धर धीर० / / 14. 0 पवित्रतनु० // 15. प्रवर० / / 16.17. राजत / / 18. हरभासुर / / 19. ०पदपदविलास / / 20. ०क्लम / / जिन० // 22. जन्म० // 23. ०घन // 24. सुमुनि / / 25.26. तानवागत / / 27. जननो० // 28. रसवससमधि० // 29. नतकृत० // 30. सुनरसुर० // 21. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org