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नवम्बर
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विवाह के अवसर पर मातृका-निमन्त्रण, ब्रह्मभोजन, सर्व-देवों का पूजन, नगरदेवता की पूजा इत्यादि प्रक्रिया का सूचन (गा. ४२९१९२, पृ. ३९२); ७. भरत- नाट्यशास्त्र के उल्लेखपूर्वक 'लय' का स्वरूप-वर्णन (गा. ५३४२, पृ. ४८७) इत्यादि । कौलधर्म या कापालिक सम्प्रदाय की बातें इस में अनेक जगह आती हैं । इस सम्प्रदाय के साथ सम्बद्ध शब्दावली-- भैरवी, कात्यायनी, चण्डिका, योगिनी, वीरवर्ग, दाक्षायणी, योगी (अघोरगण), क्षेत्रपाल (दारुणदाढ), (पृ. ३१३-१९); कौलशासन, योगीन्द्र (पृ. ५०४-५ - ६): योगीन्द्र (अघोरगण), चामुण्डा, भैरवीमुद्रा, कात्यायनी (५१९२८); योगीन्द्र, कौलागम, कौलधर्म, भैरव, कौल, उड्डीशशास्त्र, (पृ. ५४४); भैरवायतन, कापालिक, मठ, शूलपाणि (योगी), चण्डरुद्र (योगिशिष्य), त्रिशूल, भैरवपूजाविधि, भैरव, लोहार्गल(यक्ष)(पृ. ७६२ - ६६); यह सब ध्यानाह है। उक्त सभी सन्दर्भो के अवलोकन से सहज ही पता लगता है कि ग्रन्थकार के समय में कापालिक सम्प्रदाय का व्याप भारतवर्ष में बहुत रहा होगा ।
__कुछ ऐतिहासिक एवं पौराणिक तथ्यों का भी इसमें जिक्र किया गया है । उदाहरणार्थ, १. पृ. ४१८ पर दशानन एवं राम के द्वारा प्रतिष्ठापित जिन-प्रतिमाओं का
उल्लेख है (गा. ४५८६) । २. राम-रावण के निर्देश अन्यत्र भी देखे जाते हैं (गा. ४१५१, पृ. ३७९;
गा. ५६३८ पृ. ५४१) । कृष्ण का भी उल्लेख यहाँ है (गा. ५९३७, पृ. ५४१) । इससे पता चलता है कि इस-भुवनसुन्दरी की कथा का
घटना समय कृष्ण वासुदेव. के बाद का होना चाहिए । ३. इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उल्लेख मिलता है मथुरानगरीस्थित
जिनस्तूप का (गा. ६५७०-७१, पृ. ५९९) । इस निर्देश से मालूम होता है कि ग्रन्थकार के समय में भी मथुरा में स्तूप का अस्तित्व था ।
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