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अनुसन्धान ४२ को देखकर मेरा चित्त चमत्कृत हो रहा है । नेमीश्वर मुझे छोड़ गए हैं और मैं किसके समक्ष अपने हृदय की बात कहूँ । छठे पद्य में जिसने भी नेमिनाथ को प्राप्त कर लिया है, वैसे का जग में आना भी धन्य है । इस प्रकार राजुल विलाप करती है । सातवें पद्य में कवि सिद्धिविजय कहता है कि यह भव परम्परा की डोर टूट गई है। नेमिनाथको केवलज्ञान होने पर राजुल ने भी प्रभु को प्राप्त कर लिया है ।
दूसरे भास में राजुल अपनी सखी बहिन को कहती है- सुनो मेरी बहिन ! मेरा वही दिन धन्य होगा जब मैं इन लोचनों से उनके दर्शन करूँगी। अभी तो मैं जल बिना मछली की तरह तड़प रही हूँ । विरहानल मेरे देह को जला रहा है। मैं मन की बात किसे कहूँ ? मैं पूछती हूँ कि यहाँ तोरण तक आकर वापस लौटने का क्या कारण है ? निरंजन नेमिनाथ का ध्यान एवं विलाप करती हुई राजुल सिद्धि सुख को प्राप्त करती है । ये दोनों भास अद्यावधि अप्रकाशित हैं और अप्राप्त भी हैं । सिद्धिविजयजी के प्रशिष्य प्रसिद्ध श्री महोपाध्याय मेघविजयजी थे ।
सिद्धिविजयजीकी केवल चार ही लघु कृतियाँ प्राप्त है । दो नेमिनाथभास जो प्रस्तुत हैं और दो भास श्री विजयदेवसूरि से सम्बन्धित हैं। ये दोनों भास विजयदेवसूरि के परिचय से साथ प्रकाशित किए जाएंगे। इस कवि की अन्य कोई कृतियाँ मुझे प्राप्त नहीं हुई हैं । दोनों भास प्रस्तुत
है:
(१) नेमिनाथ-भास परणकुं नेमि मनाया तब पसुअ पुकार सुणाया । रथ फेरि चले यदुराया छबीले नेमिजिणिंद न आया ॥ १॥ नीके नयन कठोर भराया, छबीले नेमि जिणिंद न आया ॥ आंचली ।। उनयु जलधर जब आया घनश्याम घटा झड़ लाया ॥ इसउ मास आसाढ सोहाया छबीले नेमिजिणिंद न आया ॥ २॥ सावण की लागी छाया भाद्रवडई नेह जगाया । आसूडइ आंसु भराया, छबीले नेमिजिणिद न आया ॥३।।
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