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अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
उगतीयं (उक्तीय / औक्तिक) शब्द संस्कारः
सं. मुनिकल्याणकीर्तिविजय
भूमिका*
आ ग्रन्थमां ग्रन्थकारना काळमां प्रचलित देशीभाषाना, देश्यस्वरूपवाळा शब्दोनां संस्कृत - प्रतिरूपोनुं संकलन करवामां आव्युं छे. समग्र भारतवर्षमां साहित्य माटेनी सार्वदेशिकी तथा सार्वकालिकी भाषा प्रधानपणे संस्कृत ज गणाय छे. भारतीय वाङ्मयनो आदि युगथी आज सुधीनो इतिहास तपासीए तो जणाय के तेमां संस्कृतभाषानी ज मुख्यता अने प्रतिष्ठा सर्वदा स्थिर रही छे. जो के, वच्चे वच्चे संस्कृतभाषाना निरन्तर प्रवाहनी साथे साथे ज, तेमांथी ज उत्पन्न थयेल अने तेना ज सहकारथी उज्जीवित एवी घणी प्राकृत भाषाओ प्रादुर्भाव पामी. जेमके - मागधी, शौरसेनी, पैशाची, महाराष्ट्री व. कालान्तरे आ प्राकृत भाषाओमांथी ज रूपान्तर पामी ते ते देशनी अपभ्रंश भाषाओ जन्मी, के जेने वैयाकरणोए देश्य - भाषा तरीके ओळखावी.
वर्तमान भारतना समग्र उत्तरापथनी जे जे प्रादेशिक भाषाओ आजे छे हिन्दी, बंगाळी, मराठी, पंजाबी, सिन्धी, राजस्थानी ( - गुजराती, मारवाडी, मालवी) ते बधी आ अपभ्रंश अथवा देश्य - भाषामांथी ज विकास पामी आजे बोलाता नूतन स्वरूपने पामी छे. आ भाषाओमां मूळ तो सेंकडो संस्कृत शब्दो ज भिन्न भिन्न देश अने जातिना लोकोना परस्पर संपर्कने कारणे तथा उच्चारणभेद अने व्यवहारभेदना कारणे जुदा स्वरूपवाळा थई गया छे. तेमां पण विशेषे तो जे शब्दोमां संयुक्ताक्षरो वधारे होय तेवा शब्दोमां प्राकृत - अपभ्रष्ट फेरफारो अधिकपणे जोवा मळे छे. जेमके - संस्कृतनुं संखय, सक्कय, संगड व.; प्राकृतनुं पागय, पाइय, पायड व०; सदृशनुं - सरिक्ख - सरिखुंसरखुं व.; उपाध्यायनुं उवज्झाय-ओज्झाय-ओझा - झा / वझे व.
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★ पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय सम्पादित - राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालामां प्रकाशितसाधुसुन्दरगणिविरचित 'उक्तिरत्नाकर'नी प्रस्तावनामांथी संकलित ।