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October-2007
__ मंसगं मच्छगं भोच्चा = मांसमात्रं वा मत्स्यमानं भोक्ता ( भुक्त्वा ?) - लूतादूषितदेहप्रदेशस्वेदनं संयोजयित्वा, न तु भक्षित्वा - मांसमात्रने अथवा मच्छमात्रने भोगवीने, एटले लूता रोगथी व्यापेला देहविभाग प्रते परसेवावीने, पण खाइने नही; हाड-कांटाओने लइने एकांते, एटले निरजीव दग्ध भूमिप्रदेशे नाखे, तथा मांसें करी वारंवार स्वेदवो रह्यो छे वास्ते तेनो त्याग सूत्रमा न कह्यो, निष्प्रयोजन थयें परिठववानो छ माटे
ए प्रकारें आ सूत्रना अक्षरार्थ थाय छे तिवारे जे प्रोफेसर जेकोबीयें भोगक्रियानो अर्थ भक्षण कर्यो ते क्रियानो विषय बाहिर कर्मोना उपयोगमां लेवानो छे, एम न समझवाथी लिख्यो ते असत्य छे. ने तेथी ज जैनी पूर्वकालमा मांसाहारी हता - ए लिखाण पण असत्य छे. केम जे तीर्थंकरोनो अवतार अवश्य राजकुलमा होय, कदि अनेरे कुले अवतरे तो इन्द्र गर्भने पालटीने राजकुलमें मुके ए नियम छे. पण कांई जैनी राजाओना कुलमा ज अवतरें छे ने परणे छे एवो नियम जैन शास्त्रोमां नथी,
एटलो तो नियम छे जे तीर्थंकर घरवास रहे तो हि धर्मविरुद्ध वस्तु पोते आचरे नही, तेम ज जिहां लगें तेमने केवलज्ञान उपज्यो न होय तिहां लगे परने धर्म-उपदेश पण देय नहि - एवो तेमनो अवश्य आचार जैन शास्त्रोमां कह्यो छे. तेथी जादवों श्रावक हता एवो विवाह वखतें कइ शकाय नहि.
तथा अमोइ उपर लख्या मुजब जे आ सूत्रनो अक्षरार्थ कर्यो छे ते वृत्तिकार भगवानना आशयना आधारथी. ते वृत्तिपाठ लिखिइं छे :
एवं मांससूत्रमपि नेयम् । अस्य चोपादानं क्वचिल्लूताद्युपशमनार्थं सद्वैद्योपदेशतो बाह्यपरिभोगेन स्वेदादिना ज्ञानाद्युपकारकत्वात् फलवद् दृष्टम् । भुजिश्चाऽत्र बहिः परिभोगार्थे, नाऽभ्यवहारार्थे, पदातिभोगवदिति च्छेदसूत्रेष्वपि प्रायो द्रष्टव्यम् । एवं गृहस्थामन्त्रादिविधि-पुद्गलसूत्रमपि सुगममिति । तदेवमादिना च्छेदसूत्राभिप्रायेण ग्रहणे सत्यपि कण्टकादिप्रतिष्ठापन(परिष्ठापन)विधिरपि सुगम इति ।
एनो संक्षेपथी भावार्थ एम छे : एवं - जेम प्रथम सेलडी ने सींगोना
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