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अनुसन्धान-४१
आ स्थलें स्यात् - कोईक ज कालमां, पण जेवि तेवि वखत्तें नहि. क्वचिदेव - कोइक ज महारोगनी प्राप्तिमां पण हरेक रोगमां नही. महारोगावस्थायां ते लता नामे महारोगनी अवस्थामां. आ लतारोग जेने कोइने पूर्वे करेला कर्मना उदयथी थाय छे तेना शरीरमा रुंआडे रुंआडे अति सूक्ष्म जीवांत उपजी जाय छे. तेथी हमेस रसी स्रव्यां करे छे. खुजाल-बलतरा पण घणी होय. तेथी करीने ज्ञानध्यानादिक थइ शके नहि..
प्रचुरधर्महान्यां सञ्जायमानायां सत्यां - तेथी पोतानें अति घणी ज धर्मनी हानि थातें सतें. आ स्थले धर्महानिनो हेतु ते पोताना शरीरमांथी जे रसी वहे छे ते ज छे. केम जे जिनागममां को छे के जो पोताना शरीरमांथी पण रसी-रुधिर-परु विगैरे जिहां सुधी निकलता होय तिहां सूधी अस्वाध्याय छे. तेथी ज्ञाननो उच्चार जरातरा पण करवो नहि, ने जो करे तो ज्ञानविराधक थाय. एटले ज्ञाननो फल न पामे ने सामो संसार वधे एवो निषेध होवाथी ज्ञानाभ्यास तेनें सदा रोकाय छे. केम जे लूतावाला दरदीने शरीरे रसि सदा रहे छे माटे.
भिक्षुः - साधु जे ते रोगनी उपशान्ति थवा वास्तें कुशलवैद्योपदेशेन - ते रोगनी निवृत्तिना उपायमां कुशल-हुसियार होय एवा वैद्यना केहेणे करीनें जे ते वैयें कह्यो होय के साधुजी तुमों आ औषध लेइने रांधेला मांस उपर नाखीने ते मांसथी जेटलो लूतावालो अङ्ग होय तेटला सर्व अङ्गने प्रस्वेदित करजो (परसेववो), तेथी मटि जासे. ए प्रकारे वैद्यना कहेवाथि किं वा पोताना के अनेरा साधुना जाणपणाथी ते दरदी साधु,
यद्यस्पर्शनीयमपि - जो पण साधुओनें मांसनो स्पर्श करवो (तेने अडवो) वाजबि नथि, तो पण मांसस्पर्शने - मांसने अडवा विषे समुद्भूत प्रयोजनवान् स्यात् - उपज्यो छे स्पर्श करवानो गाढो प्रयोजन (कारण) जेने एवो थाय, तदा - ति वारे, ज्ञानाद्यर्थी सन् - ज्ञानाभ्यासनी ध्याननी संयमप्रमुखनी वृधिनो अर्थी - कामनावालो थयो सतो, तं - ते मांस प्रतें, गवेषयेत् - मांसभोजी गृहस्थोंने घरे तेनी तलास करवा निकले. गवेषयश्च - तेनी तलास वास्ते फिरतां सतां, साधोः - ते साधुने.
आ प्रथम कहेल सर्व अर्थना समुदायने संग्रहीने चालता सूत्रनी आदिमा एक स्यात् शब्द बेसो छे ते प्रोफेसर जेकोबी गुरुगम विना जाणी
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