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अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १
इय दह-तिय-संजुत्तं वंदणयं जो जिणाण तिक्कालं । कुणइ नरो उवउत्तो सो पावइ सासयं ठाणं ॥३॥ जघन्य मध्यम उत्कृष्ट चैत्य - वंदना कीजइ ।
नवकारेण जहन्ना दंडग - थुइ - जुयल मज्झिमा नेया । संपुन्ना उक्कोसा विहिणा खलु वंदणा तिविहा ॥१॥
शत्रु भणियइ सौधर्मेंद्रु । तिणि स्तवनु कीयउं एहु शक्र - स्तवु भणियइ । ईणि भावारिहंत । समवसरणोपविष्ट धर्मु कहई । नवे संपदे त्रेत्रीसे आलावे ति वांदियइं । ‘जेइया' इत्यादि द्रव्यार्हत थुणियई । 'अरंहत - चेइयाणं' स्थापनार्हंत नमंसियहिं । 'लोगस्सुज्जोयगरे' नामारहंत स्तवियहिं । ' पुक्खरवरदीवड्ढे' नाणु आराधियइ । 'सिद्धा [ पत्र ३२४ क] णं' सिद्ध स्तवियहिं । पाए जिन-मुद्रा संपाडियइ ॥
हाथे जोग
चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाइ जत्थ पच्छिमओ । पायाणं उस्सग्गो एसा पुण होइ जिण मुद्दा ||१|| - मुद्रा संपाडियइ ।
अन्नोनंतरि अंगुलि-कोसागारेहिं दोहिं हत्थेहिं । पिट्टोवरि कुप्पर - संठिएहिं तह जोग - मुद्दति ॥ १॥ 'जय वीयराय' मुक्ताशुक्ति-मुद्रा ॥
मुत्तासुत्ती - मुद्दा समा जहिं दोवि गब्भिया हत्था । ते पुण निलाड - देसे लग्गा अन्ने अलग्ग त्ति ॥१॥
वय-छक्कु पालइ । काय - छक्कु राखइ । अकल्पनीउ परिहरइ । कल्पनीय चारि ठाम । पिंडु । सिज्या वस्त्रु पात्रु पट्टि (डि) गाहइ ।
पिंडं सिज्जं च [पत्र ३२४ ख] वत्थं च चउत्थं पायमेव य । अकप्पियं न गिन्हिज्जा पडिगाहिज्ज कप्पियं ॥१॥
गृह-भाजन । कांसउं । त्रांबउं रूपडं । सोनउं । परिवर्ज्जइ । मांची खाट तुलाई चाउरि मसूरडं न परिभोगवइ । जावज्जीव स्नान शोभा परिवज्जिइ । नव ब्रह्म