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December - 2003
टीकाकार एक जैन मुनि-आचार्य छ, अने तेमनो टीकारचनानो प्रमुख आशय, 'अहिंसा' अने तेवा अन्य पदार्थो परत्वे, 'रघुवंश' जेवा महाकाव्यना आलम्बनपूर्वक, जैन तत्त्वदृष्टिनुं प्रतिपादन करवानो छे, ते सुस्पष्ट जाणी शकाय छे-आ टीकाना अवलोकनथी. ए आशयमां टीकाकार केटला सफल थया छे, ते पण जोईए :
___श्लोक १६मां 'अतिथि' अने 'क्रिया' शब्दो आवे छे. त्यां कोष अने अन्य आधारो प्रमाणे ते बन्नेना अर्थ तथा व्युत्पत्ति आपवानी साथे ज, जैन परिभाषा प्रमाणे 'अतिथि' कोने गणाय, अने देवता-अतिथि-पितृ आदि माटे करवानी ‘क्रिया' कई होय- तेनुं पण प्रतिपादन कर्यु छे. ते प्रमाणे 'संसारत्यागी मुनिने ज अतिथि गणावेल छे, अने 'स्तवन-भक्ति-सत्कारादि'ने क्रिया तरीके वर्णवी छे. वळी, ए ज श्लोकना चोथा चरणमां 'श्रद्धेव साक्षाद् विधिनोपपन्ना' एवो पद्यांश छे, तेनो संवाद जैनसम्मत 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' ए सूत्र साथे सुयोग्य रीते टीकाकारे मेळवी बताव्यो छे. त्यां प्रासंगिक तार्किक चर्चा पण करी छे, अने जैन शास्त्रोमां 'ज्ञान' अने 'क्रिया' माटे जे खण्डनात्मक वाक्यो जोवा मळे छे, ते परस्पर निरपेक्ष एवा ते बन्ने परत्वे होई 'अर्थवाद' मात्र छे, ते, सरस तर्कसंगत समाधान पण करी आप्युं छे.
श्लोक २२मां 'भक्ति' शब्द आवतां, टीकामां जैनमतमां स्वीकृत 'भक्ति' पदार्थ- विस्तारथी निरूपण करेल छे. तेमां अनेक संस्कृत-प्राकृत जैन ग्रन्थोना उद्धारणो टांक्यां छे. भक्तिनी विविध विधाओ बतावी छे. दिगम्बर जैनो साथे अमुक विधामा मतभेद पडे छे, तेनी चर्चा सम्मतितर्कमांथी जोवानुं सूचन पण कर्यु छे. प्रसंगोपात्त, मिथ्याश्रुत एटले के जैनेतरोनां शास्त्रो पण जो सम्यक्त्ववंतो द्वारा परिग्रहाय तो ते सम्यक् ज्ञान बने छे, एवं प्रतिपादन करतां तेना समर्थनमां भगवद्गीतानो श्लोक टांकीने 'योगवासिष्ठ' गत श्रीरामनी उक्तिने टांकी आपी छे. आ पछी 'गीता'ना सन्दर्भो तथा मल्लिनाथनी व्याख्या पण टांकेल छे. 'भक्ति' विषयक आ विस्तार भावकने माटे कदाच अप्रासंगिक बनी रहे तेवो भय जागे खरो.
__ श्लोक २३मां 'गुरु' शब्द आवतां तेनी टीकामां स्मृति, पुराण वगेरेना हवालापूर्वक 'गुरु'नी व्याख्या आप्या पछी, जैनमते हेमचन्द्राचार्य तथा
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