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[20] इक -मीक्कारणि एक, अइ-करइँ पात्र अनेक । हिंसंति जीव अणाह, ते हुसइँ केम अणाह ।।२१३ जंपति इक बहु कूड, ते हुइ दुह-गिरि-कूड। हठि हरईं पर-धण लोभि, लज्जवि अप्प-कुलोभि ।।२१४ लोपइँ ति लंपट शील, तिहँ किसिय निय-गुरुशील । अइ-करई बहु आरंभ, तिहँ धरइँ धुरि संरंभ ॥२१५ मनि धरई बहुअ कसाय, तसु छेहि कडुअ कसाय । वंचइ ति पियगुरुमाय, जसु माय किहँ नवि माइ ॥२१६ इम अछइँ बहुअर पाप, जीहँ तणउ कलि बहु व्याप । न करइँ ति कारणि धर्म, जोदिइ सवि शिव-शर्म ॥११७ अछइ निग्गुण देह, तसु तणउ लाहुसु एह । किज्जइ जि पर-उवयार, संसारि इतुं सार ॥११८ विहलिय विविहि वसि साहु, नवि करइ कम्म असाहु । छुहपीड-पीडिय-हंस, नवि करइ कीडिय हिंस ॥२१९ कापुरिस कुवसण कूडि, लिज्जइ सु लहु पर-कूडि। छलि छलइ कोइ न छेक, सुजिलहइ धम्म-विवेक ।।२२० सुणि सुयण सच्चह सार जगि धम्म इक्क जि सार । नवि मुणई गाम गमार, तउ धम्म सिउँ ति असार ॥२२१ महु महुर दाडिम दाख, बहु-फलिय सुम सय-साख । तिहँ करह गय मुह मोडि, तउ लग्गसिउँ तिणि खोडि ॥२२२
यथा यथा बहिर गीय नवि सुणिउ भमर चंपकि न बट्ठउ, सोल कला-संपन्न चंद अंधलइँ न दिट्ठउ । कर-हीण' पंगुलइँ कढिण कोदंड न ताणिउ, तरुणी-कंठ विलग्गि तुंड-रसभेय न माणिउ । किव हणि कुजाण-कुविलक्खणह, कवियण जाणइँ जं न मण । इम कहि गद्द गुणवंतयह, जग-उप्परि किम जाणइ गुण ।।२२३
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