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अनुसन्धान ४७
अन्य कोई इस नाम का आचार्य दृष्टिगत नहीं होता।
श्रीजिनेश्वरसूरि के हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि प्राचीन साहित्य में श्वेताम्बर समाज का दर्शन और कथा साहित्य आदि पर कोई ग्रन्थ नहीं है । दुनिया के समक्ष रखने के लिए इन ग्रन्थों का निर्माण आवश्यक है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर श्वेताम्बर परम्परा का प्रथम दर्शन ग्रन्थ प्रमालक्ष्म, कथा साहित्य में लीलावतीकहा और कथाकोष आदि की रचना की । अपने सहोदर एवं गुरुभाई श्रीबुद्धिसागरसूरि को इस बात के लिए तैयार किया कि तुम व्याकरण आदि ग्रन्थों पर नवीन निर्माण करो । उन्होंने भी बुद्धिसागर/पंचग्रन्थी व्याकरण की रचना की । श्रीगुणचन्द्रगणि (देवभद्राचार्य) ने महावीरचरियं प्राकृत (रचना संवत् ११३९) में प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रशस्ति देते हुए लिखा है कि जिनेश्वरसूरि के बन्धु और गुरु भ्राता बुद्धिसागरसूरि ने व्याकरण और नवीन छन्दशास्त्र का निर्माण किया था ।
अन्नो य पुनिमायंदसुंदरो बुद्धिसागरो सूरी ।
निम्मवियपवरवागरणछन्दसत्थो पसत्थमई ॥५३॥
व्याकरण, पञ्चग्रन्थी और बुद्धिसागर के नाम से प्रसिद्ध है। छन्दशास्त्र प्राप्त नहीं होता है । सम्भवत है किसी भण्डार में उपेक्षित पड़ा हो । सम्भवतः बुद्धिसागरसूरि ने संस्कृत में पिङ्गलछन्दसूत्र के आधार पर ही छन्दशास्त्र लिखा हो और जिसमें मातृका, वर्णिक, अर्द्धसम, विषम और प्रस्तार आदि का वर्णन हो । उस अवस्था में जिनेश्वराचार्य ने प्राकृत आगम साहित्य का अध्ययन करने की दृष्टि से इस छन्दोनुशासन की रचना की है। जिसमें केवल गाथा
और उसके अवान्तर भेद और प्रस्तार संख्या ही निहित है । वर्णिक साहित्य का इसमें उल्लेख नहीं है । टीकाकार
टीकाकार का नाम मुनिचन्द्रसूरि प्राप्त होता है। ये मुनिचन्द्रसूरि और सूक्ष्मार्थविचारसार प्रकरण के चूर्णिकार श्रीमुनिचन्द्रसूरि एक ही हों, ऐसा प्रतीत १. गुणचन्द्र गणि (देवभद्रसूरि) रचित महावीर चरित्र, पत्र ३४०; प्रकाशन देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्थान, सूरत, संवत् १९८५
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