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३) पंडितवर्य श्री बेचरदास जी दोशी
सत्य की साधना-आराधना हेतु पुष्प शैय्या पर विराजमान न हो काँटों भरी राह अपनाने वाले, खड्गधार पर चलने वाले, ज्ञान प्राप्ति हेतु अभूतपर्व आत्मत्याग करने वाले, राष्ट्र के अभ्युदय के लिए जलावतन होने की सजा भुगतने वाले, भगवती शाखा, समाज पुरुष और राष्ट्र देवता के लिए तन-मन-धन न्यौछावर करने वाले थे पंडित बेचरदास जी दोशी. उनकी गणना इस देश के अग्रगण्य सरस्वती पुत्र, राष्ट्र सेवक एवं समाज सुधारकों में की जाती है. अभिव्यक्ति के हर संभव क्षेत्र पर उन्होंने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की मुहर लगाई है. जैन संघ को अंधश्रध्दा के घोर तिमिर से जगाने वाले वर्तमान युग के सुप्रसिध्द पुरुष प्रवरों में एक बेचरदास जी रहे.
बचपन से ही उन्होंने दरिद्रता के दशावतारों से सामना किया. संकट - विपत्तियों को पुष्पहारों के समान सीने से चिपकाए रखा. जीवन भर प्रतिकुलता अभाव और विषमता के साथ जुझते रहे. विषमय वातावरण से घिरे रहते हुए भी अखंड रूप से माता शारदा की सेवा की. समाज धर्म की उपासना को व्रतस्थ भाव से अस्खलित रखा. अखंड नए की खोज में लगे रहे. उन्होंने सत्यशोधन प्रक्रिया को कदापि मंद न पड़ने दिया. उनकी जीवन शैली को संक्षेप में दिने दिने नवं नवं ' कहा जा सकता है.
जैन साहित्य और इस भव्य देश के इतिहास के संदर्भ में भी वल्लभीपुर नाम विशिष्ट और महत्वपूर्ण है. इस नगरी में ही विक्रमी संवत १९४६ अर्थात् इसवी सन १८९० में मार्गशीर्ष अमावस्या के दिन बेचरदास जी का जन्म हुआ. लाथा भाई उनके दादा जी का नाम था. पिता जीवराज जी, माता आतम बाई. बिसा श्रीमाळी बेराबासी जैन परंपरा में उनका जन्म हुआ. दस साल की उम्र में पितृ छत्र नष्ट हो गया. उदर निर्वाह का प्रश्न बिकट था. खाने को अन्न नहीं था लेकिन मृतक् भोज और उत्तर क्रिया के लिए कुछ भी नहीं था. माँ ने अपने हाथ का कंगन बेच कर सारी व्यवस्था पूरी की थी. बेचरदास जी इस हृदयद्रावक कथा को भला कैसे भूल पाते ? अपना सब कुछ माँ ने न्यौछावर कर दिया था. मजदूरी करनी पड़ी. चक्की पीसना, वर्तन माँजना, ऐसे सेवा कार्य करने पडे लेकिन भूख का प्रश्न मिट नहीं पाया था. माँ रात-दिन अपने बच्चों के पालन पोषण के लिए मेहनतरत रही. परिश्रमी माता को सहायता देने के लिए नन्हा बेचरदास सदा तैयार रहता. मजदूरी करते हुए न उन्हें कभी लाज आई और ना ही उन्होंने उन कामों को छोटा या हेय माना. खेत में परिश्रम किया. महिलाओं के करने योग्य सेवा कार्य करने में भी अपनी माँ का हाथ बँटाया.
ज्ञानार्जन के लिए उनका मन सदा बेचैन रहा. परिस्थिति का दबाव इतना भयंकर था कि मन मसोस कर रह जाना पड़ा. १९०२-१९०३ में शास्त्र विशारद जैनाचार्य विजयधर्मसूरी महाराज ने मांडल में संस्कृति पाठशाला की स्थापना की. वे जैन विद्वानों को निर्मित प्रशिक्षित करना चाहते थे. इस पाठशाला में अध्ययनार्थ वल्लभीपुर
ही श्री हर्षचंद्र भूरा भाई (श्री जयंतविजय जी ) मांडळ की दिशा में जाना चाहते थे. बेचरदास उनके साथ हो लिए. आचार्य श्री छात्र को देख फूले न समाए. गुजरात के अर्थ प्रधान वातावरण में विद्योपासना को बल नहीं मिलेगा ऐसा विचार कर सूरीश्वर जी ने काशी की राह अपनाई. काशी में विद्या व्यासंग के लिए पर्याप्त अनुकूल और उत्साह भरा वातारण था. मांडळ के अपने पाँच-छह महिने के वास्तव्य काल में बेचरदास जी ने कौमुदी का स्वाध्याय किया. आचार्य महाराज जी के साथ काशी जाने की सिध्दता की माँ अपने बालक को इतनी दूर भेजने के लिए तैयार नहीं थी. श्री हर्षचंद्र जी के साथ बेचरदास गोधरा से वापस लौट आए. बल्लभीपुर में ही सातवीं कक्षा तक की पढाई पूरी की.
मातृ इच्छा को आदर देते हुए बेचरदास वापस लौट आए लेकिन ज्ञान प्राप्ति की तृष्णा उन्हें बेचैन करती रही. उन्होंने पालिताणा जाने का तय किया. मुनि श्री सिध्दविजय जी महाराज के चरणों में बैठ कर नवतत्व आदि धार्मिक अध्ययन का संकल्प पूर्ण किया. पालिताणा के निवास काल में उन्होंने भोजनादि सुविधाओं के लिए कडे संघर्ष का मुकाबला करना पड़ा. माँ ने राह चलते हुए लड्डु दिए थे. वे समाप्त हो गए. भोजन की व्याधि तो रोज