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________________ उम्र के आठवें साल से ही मुनिवर के क्रांतदर्शी जीवनपट का परिचय मिलता है. स्थानीय उपाश्रय के एक यतिवर की मृत्यु की वेदना उनके हृदय में आरपार उतर गई. एक साधु की संगति में पदयात्रा का निर्णय कर उन्होंने गृहत्याग किया. साधु ने बालक की व्याकुल माता को बालक के ऊर्जस्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त किया. उज्जैन नगरी पहुँचे. क्षिप्रा नदी के लहराते प्रवाह में साधु वेष को विसर्जित कर दिया और मुनिवर ने स्वतंत्र विचरण तथा स्वाध्याय का निश्चय मन-ही-मन किया. लोकमान्य तिलक जी से मुनिवर का विशेष स्नेह संबंध था. सन् १९२० में वे गाँधी छावनी में दाखिल हुए. राष्ट्रीय असहयोगिता के आंदोलन में शामिल हुए. आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते हुए अपने साधु वेष को बाधा मानने के कारण गाँधी जी से विस्तृत चर्चा-विमर्श करने के पश्चात् पुनश्च साधु वेश का त्याग किया. अपने अनेक विद्वान एवं विचारक मित्रों से सलाह-मशविरा किया. अखबार के माध्यम से अपनी इस विशिष्ट भूमिका का मर्म बता वेषांतर का रहस्य उद्घाटित किया. अनेक स्वनामध्यन्य पत्रकारों से उनका स्नेहबंध था. नए मित्र जुडते ही जा रहे थे. उन्होंने अनेक विषयों की चर्चा करनेवाले विविध ग्रंथों की निर्मिति की. अपनी व्यापक संप्रदाय मुक्त जीवनधारा के कारण उन्हें ' सर्वेषां अविरोधेन् ' व्यापक मान्यता प्राप्त हुई. साधु वेष का त्याग कर मुनिवर जी ने खद्दर का वरण किया. मुंबई को प्रणाम कर गाँधी जी के साथ अहमदाबाद जा पहुँचे. सत्याग्रह आश्रम में निवास किया. गाँधी कुटी में बैठ अपने परिवर्तित जीवन-प्रवाह का आलेख प्रस्तुत किया. अपनी गतिशील जीवनशैली के कारण मुनिवर गाँधी रंग में रंग गए. लोकमान्य तिलक जी के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संघर्ष धारा से प्रभावित मुनिवर १९२० से गाँधी आश्रम की तापस भूमि में रम गए. यहाँ नित्य ही नए-नए प्रयोगों की धूनी रमाई जाती थी. इस आश्रम ने उनके तपाचरण पर एक नया तेज अर्पित किया. अपनी संशोधन वृत्ति की पूर्ति के लिए उन्होंने देश-विदेश की विस्तृत यात्रा की. नमक कानून तोडने के अभियान में उनकी दृष्टि और कृति विवेकसंमत थी. एक जुझारु दस्ते के वे सेनानी रहे. इस आंदोलन में सक्रिय होते हुए भी उन्होंने अपने प्रज्वलित ज्ञानदीप पर कालिख जमा नहीं होने दी थी. संशोधन के नित्य नए प्रयोग और अध्ययन के अधुनातन संदर्भ जुटाने में वे सक्रिय रहे. विद्वनमान्य ' सरस्वती ' पत्रिका में उनका लेखन नित्य प्रकाशित होता रहा था. भारत के मूर्धन्य संशोधक जगत् में उनका न केवल परिचय था अपितु दबदबा भी था. जैन ग्रंथों के संशोधन-अध्ययन के लिए उन्होंने गुजरात भर पदयात्रा की. हस्तलिखितों की संहिताएँ माथे पर उठाए घूमते रहे. गुजरात पुरातत्व मंदिर की स्थापना की. गाँधी जी द्वारा संस्थापित गुजरात विश्वविद्यालय के प्रथम निदेशक के रुप में सम्मानपूर्वक आसनस्थ हुए. इसी काल में पंडित सुखलाल जी से मुनिवर का करीबी संपर्क हुआ. देश भर के स्वनामधन्य पंडितों ने मुनि जिनविजय जी को भारतीय दर्शन शास्त्र के महापंडित के रुप में गौरवान्वित किया. एक बार एक जर्मन पंडित ने भारतीय दर्शन शास्त्र के समर्पित अध्येता के बारे में गाँधी जी से जानना चाहा था. उस समय क्षण भर का विलंब लगाए बिना गाँधी जी ने जिनविजय जी का नाम लिया था. १९२८ में गाँधी जी की प्रेरणा से जिनविजय जी ने जर्मनी की दिशा में प्रयाण किया. जर्मनी में उन्होंने भारतीय दर्शन का अध्ययन अपने विशिष्ट ढंग से किया. बर्लिन में अध्ययन-संशोधन के लिए हिंदुस्तान हाऊस नामक संस्था की स्थापना की. इसी हिंदुस्तान हाऊस से सुभाष बाबू ने स्वतंत्र भारत की उद्घोषणा कर अंग्रेज सल्तनत की नींद उडा दी थी. दो वर्षों तक इस संस्था को अपनी सेवाएँ अर्पित करने के पश्चात् सन् १९३० में जिनविजय जी हिंदुस्तान लौटे थे. मातृभूमि पर कदम रखते ही उन्होंने अपने आपको स्वाधीनता की लडाई में झोंक दिया था. जेल यात्रा की. कारावास से मुक्ति पा कर अपने पूर्वनियोजित अध्ययन-संशोधन में जुट गए. दुर्लभ ग्रंथों के प्रकाशन का कार्य हाथों में लिया. जैन ग्रंथमाला से संबध्द रहते हुए गुरुदेव रवींद्रनाथ टागोर के शांतिनिकेतन में साधनारत रहे. मुनिवर का प्राच्यविद्या का संशोधन और लगन देख दुनिया स्तिमित हो गई. १९५२ में जर्मनी के ओरिएंटल सोसाइटी ने उन्हें अपना मानद सदस्यत्व बहाल कर सम्मान किया. यह एक विरल सम्मान की घडी थी. निरंतर
SR No.229265
Book TitleMahatma Gandhiji ke Jain Sant Sadhu
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size193 KB
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