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________________ कार्यकाल संपन्न कर गाँधी जी हिंदुस्थान लोटे थे, उस समय उनके सम्मान में अहमदाबाद में एक सभा का आयोजन किया गया था. उस श्रोतृ समुदाय में पंडित जी भी थे. उन्होंने पहली पार इसी सभा में गाँधी जी को सुना था. ' कर्मवीर ' गाँधी जी का परिचय अखबारों के माध्यम से हुआ ही था. गाँधी जी के आश्रम की स्थापना हो गई थी. उस समय से उनका आश्रम में आना-जाना था. अनेक बार सायंकालीन प्रार्थना के पश्चात् सायंकालीन भ्रमण काल में उन्होंने पंडित जी से चर्चा भी की थी. ब्रह्मचर्य की सुकरता के संबंध में उनके और गाँधी जी के मतों में साम्य था. रमणिकलाल और पंडित जी ने गाँधी आश्रम में बैठ कर ही स्वाध्याय करने की योजना बनाई. आश्रमीय तपोमय वातावरण से लाभान्वित होने की बात भी उनके मन में थी. मिलने की आशा भी मन में थी. परिचय गहरा होने का लोभ भी था. एकांत स्थल में बैठ कर ग्रंथ का स्वाध्याय करने से पठन में एकाग्रता बढने बात भी मन में थी. उन्होंने सुविचारित रुप से गाँधी जी को पत्र लिखा. उत्तर स्वरुप ' हाँ, आइए ' पढ़ कर मन मयुर नाच उठा. पंडित जी और रमणिकलाल मोदी ने बिस्तर बांधा. दोनों तैयार हुए. आश्रमीय जिम्मेदारी उठाने की बात सोची. रमणिकलाल आश्रम जीवन से पूर्वपरिचित थे. पंडित जी ने चक्की पीसने का काम माँग लिया. हालों कि उन्हें इस काम का कोई अनुभव नहीं था. यह बात उन्होंने गाँधी जी से कहते ही ' आइए, में आपको सिखा दूँ. ' यह कहते हुए गाँधी जी चक्की चलाने में उनकी मदद करने के लिए तत्परता से आगे आए. गाँधी शैली मे प्रत्यक्ष सहभाग से शिक्षा का आरंभ हुआ. स्वयं गाँधी जी ने पंडित जी को चक्की चलाने की दीक्षा दे कर्मयोग का अभिनव पाठ पढाया. पंडित जी और रमणीकलाल जी यथासंभव कर्मप्रवृत्ति का पठन करते. दो-एक बार घूमते-टहलते गाँधी जी ने उन्हें स्वाध्यायरत पाया. स्मित हास्य करते हुए ' अच्छा जी, क्या पढा जा रहा है ? ऐसा कहते हुए विषय की परिधि और संदर्भ जान लेने की पृच्छा की. दोनों ने स्पष्टीकरण दिया. गाँधी जी अपने काम की ओर चल पड़े. पंडित जी ने इस प्रसंग की आत्मकथा में चर्चा करते हुए लिखा है कि जिस स्थान पर साक्षात् कर्मयोगी सशरीर विद्यमान थे वहाँ हम कर्मशास्त्र के संबंध में निरर्थक माथापच्ची कर रहे थे इस बात का बोध होने पर मन लज्जित हुआ. आगे पंडित जी ने अध्ययनार्थ काशी की राह अपनाई. यह उनके लेखन विषयक प्रयोग करने का काल था. गाँधी जी की सन्निधि के कारण सादगी और स्वावलंबन का पाठ पढने मिला था. उसका अभ्यास काशी में बैठ करने का निश्चय किया गया. गाँधी आश्रम के अनुसार घी-दूध के बिना रसोईघर की रचना की गई. प्रथम महायुध्द का वह समय था. चक्की पीसने का उपक्रम यहाँ भी जारी रहा. व्यायाम और आनंद का महोत्सव जागा. जिनविजय जी की पुकार सुन पंडित जी पुणे गए. वहाँ विविध महाविद्यालयों में पढने वाले और छात्रावास में निवास करने वाले छात्रों के लिए दर्शन शास्त्र पढ़ाने की जिम्मेदारी उन्होंने स्वीकार की. जिनविजय जी गाँधी तत्वज्ञान से प्रेरित कर्मयोगी जैन साधु थे. यह वह समय था जब धर्मानंद जी कोसंबी फर्ग्युसन महाविद्यालय में पाली विषय के प्राध्यापक थे. उनकी भविष्यदर्शी दृढ मित्रता का बीजवपन इसी काल में हुआ. काशी में दुबारा मिलना हुआ. जैन-बौध्द दर्शन के तुलनात्मक अध्ययन को दिशा एवं गति मिली. गाँधी जी के साथ पधारे आचार्य कृपलानी जी से इसी काल में परिचय हुआ. यह मैत्रभाव आगे खूब विकसित हुआ. पंडित जी ने सुचेता कृपलानी को भी संस्कृत पढाया. गोखले जी के भारत सेवक समाज में एक बार अचानक पंडित जी की मुलाकात होने पर गाँधी जी ने ' अरे, आप यहाँ ? कैसे ? क्या चल रहा है ? ' कह सब जानना चाहा. पंडित जी ने जैन दर्शन शास्त्र का अध्ययन करने की बात बताई अपनी विशिष्ट स्मित साधना के साथ अच्छा जी ! ' कहते हुए गाँधी जी ने द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव इन चार संज्ञाओं की परिभाषा जानना चाहा. पंडित जी ने अपने ग्रंथ ' गाँधी जी के साहचर्य में ' में इस प्रकार के अनेक संस्मरण लिखे हैं. गाँधी जी सैध्दांतिक तत्वमीमांसा को व्यावहारिक आधार देने के लिए प्रयत्नशील थे. उस समय पंडित जी के हाथों में श्री गोपालदास बरैया का जैन सिध्दांत प्रवेशिका ' ग्रंथ था. गाँधी जी धर्म और दर्शन का अध्ययन किसी पोथी पंडित की शैली में नहीं करते थे. उन्हें सजीव प्रश्नों में रस लेने वाले जीवनस्पर्शी दर्शन की खोज थी. यात्रा करते समय विविध प्रकार के व्यवधान और मन-बुद्धि पर नाना प्रकार के
SR No.229265
Book TitleMahatma Gandhiji ke Jain Sant Sadhu
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size193 KB
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