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________________ उनकी आत्मकथा के माध्यम से मूल में जा कर ही पढना चाहिए. अमियविजय जी नामक साधु से उन्होंने संस्कृत भाषा का ज्ञान पाया. न्यायशास्त्र, काव्यशास्त्र, अलंकार शास्त्र का अध्ययन किया. ज्ञानार्जन के मुख्य हेतु की सिध्दि के लिए पंडित जी ने अनेक नगरों का दर्शन किया. वे जैन दर्शनशास्त्र के महापंडित थे. गाँधी जी से चर्चा हप्ते में एक दिन प्रति शनिवार को होती थी. ७ अगस्त १९२६ को उन्होंने गाँधी जी से प्रश्न पूछा था कि ईश्वर को परम पिता माना जाना चाहिए यह आपका तर्क है. इसका आधार श्रध्दा है या सहज निवेदन ? इस प्रश्न के उत्तर स्वरुप गाँधी जी ने कहा था-" इस प्रश्न से सहज ही तर्क करनेवालों में में नहीं . किसीको भ्रमजाल में उलझाने का भी मेरा इरादा नहीं है. मुझे द्विअर्थी वचन बोलना भी नहीं आता. ईश्वर तत्व विषयक किए गए चिंतन के आधार पर ऐसा मेरे द्वारा लिखा गया है. ईश्वर का पिता कौन इस मुद्दे के पास आ कर हम रुक गए हैं. तो ईश्वर को तर्कातीत माना जाना होगा. (तकांतीत अर्थात् तर्क को स्थान नहीं अथवा यह तत्व तर्क द्वारा जानने योग्य नहीं है या तर्क के माध्यम से जानना योग्य नहीं है ऐसा है.) लेकिन तर्कातीत विषय को यथासंभव तर्क की परिधि में लाने का प्रयत्न करता हूँ. फिर भी अंततोगत्वा यह है श्रध्दा का विषय ! पंडित जी के प्रश्न का भय मैं समझ पा रहा हूँ. क्या वह इस जगत का कर्ता हर्ता है ? अगर वह ऐसा नहीं है तो व्यर्थ जगत को क्यों खेंगाला जाएँ ? (याने दुनिया के तमाम प्रश्न इकट्ठा कर ईश्वरी तत्व से क्यों जोड दिए जाएँ ? ) स्याद्वादी वस्तु सभी स्थानों पर वर्णन करने योग्य नहीं होती है. इसका कारण हम ही हैं. हमारी बुध्दि ही परिमित होने के कारण उसकी दौड मर्यादित स्वरुप तक ही है. हम तो चिंटी-कीडे से भी अल्प स्वल्प प्राणी हैं. इसी कारण तो स्वाद्वाद की उत्पत्ति हुई है. इस कारण हम जब तक सर्वज्ञ नहीं हैं और सच्चे को जान लेने की और समझा सकने की शक्ति हम प्राप्त नहीं कर लेते तब तक सर्वज्ञ नहीं हैं. यह शक्ति हम जब तक प्राप्त नहीं कर लेते तब तक कौन किसे किस आधार पर सत्य अर्पण कर सकता है? इस विचार के उठते ही में स्तब्ध हुआ और इस निश्चय तक पहुँचा हूँ कि हमें अपने विचारों को यथावत् प्रकट करने में आनाकानी नहीं करनी चाहिए, डरना नहीं चाहिए. मैं अपनी दृष्टि में खरा हूँ (इसका खंडन करने वाले को भी मैं कहूँगा कि भैया मेरे - आप भी खरे हो ! उसे कहूँगा कि मेरा तर्क अमूक अंश तक जड हो जाता है ( और मैं श्रध्दा का आधार लेता हूँ.) बुध्दि से समांतर `चलने वाला तत्व श्रघ्दा नहीं है. बुध्दि जहाँ कुंठित हो जाती है वहाँसे श्रध्दा का प्रांत शुरु होता है... ( प्रश्न का स्वरुप ऐसा भी हो सकता है.) क्या ईश्वर कर्ता है ? ईश्वर के मूल में कर्ता भाव बसता है. ईश्वर का अर्थ होता है राज्य कर्ता या शासक ! वह कर्ता है उसी प्रकार अकर्ता भी है. उसके कार्य को हम देख सकते हैं इसलिए वह कर्ता है. इस पाश्चात्य दृष्टिकोण को इसी प्रकार से जान-समझ लिया जा सकता है. इस प्रचंड विस्तार को धारण करने वाला कोई तत्व तो अवश्यमेव होना चाहिए. उसके हजारों नाम हो सकते हैं. या वह अनामा भी रह सकता है. याने ईश्वर शासक या राज्यकर्ता के समान पुरुष हैं भी और नहीं भी हैं. आखिर ( इतना तो सत्य ही है कि) वह कोई चैतन्य तत्व है. इस शरीर को धारण करने वाला आत्मतत्व है. उसी प्रकार ब्रह्मांड को धारण करने वाला आत्मतत्व - चैतन्यमय है और है ही है ! "1 श्री रमणीकलाल मगनलाल मोदी गाँधी जी की दांडी यात्रा में सम्मिलित हुए थे. वे आश्रमवासी के रुप में जाने जाते थे. उपाधि प्राप्त करने पर वे ओड नामक स्थान पर अध्यापक थे. उनके साथ पंडित जी का ऊपरी परिचय ही था, कोई खास गहरा संबंध नहीं था. पाटण में विद्याध्ययन करते हुए उनके परिचय का विशेष अवसर आया था. जैन शास्त्रों का तो उनका अध्ययन था ही लेकिन वैदिक और बौध्द साहित्य एवं दर्शन का भी उनका सूक्ष्म अध्ययन था. पैतृक संस्कारों के कारण वैसे उन्हें जैन शास्त्र, इतिहास और परंपरा की स्थूल जानकारी थी. वे इस विषय में अधिक सूक्ष्म जानकारी पाना चाहते थे. बडोदा से चलने के पूर्व मोदी जी पंडित जी से मिले थे. कर्म की प्रकृति, स्वभाव, गति इस प्रकार के कर्मशास्त्र विषयक प्रश्नों के संबंध में उनके मन में जिज्ञासा का भाव था. छुट्टियों के काल में दोनों ने इस विषय पर एक साथ बैठ कर अध्ययन करने की बात सोची लेकिन स्थान कौनसा हो ? यह विचार चला तो गाँधी आश्रम में बैठ स्वाध्याय करने जाना तय हुआ. उन दिनों गाँधी आश्रम सरखेज रोड पर था. इसके पूर्व पंडित जी का गाँधी जी से परिचय हो चुका था. दक्षिण अफ्रीका का अपना सफल
SR No.229265
Book TitleMahatma Gandhiji ke Jain Sant Sadhu
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size193 KB
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