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________________ उनकी स्थिर-बुध्दि का परिचायक तत्व माना जा सकता है. उनकी वाणी सत्य संदर्भित थी. उनकी वृत्ति समतोल, गौरवास्पद और गहन-गहरी थी. राजचंद्र जी गृहस्थ थे. उनकी गृहस्थी वैराग्य से अभिमंत्रित थी. करोडों रुपयों का व्यवहार करने के पश्चात् भी वे अखंड भाव समाधि में रहा करते थे. हीरे-मोती का व्यापार करते. व्यापार एवं वाणिज्य विषयक प्रश्नों को हल करते, समस्याओं की गाँठ सुलझाते फिर भी इस विषय में उन्हें रस नहीं था. वे तो आत्मदर्शन की प्यास के कारण हरि दर्शन की प्रक्रिया में रमे हुए थे. ईश्वर चिंतन उनका परम पुरुषार्थ था. उनकी व्यापारी पेढी पर उनकी डायरी के साथ धर्म ग्रंथों की भीड कायम रही. व्यापार से थोडा भी समय मिलने पर वे धर्म ग्रंथों के स्वाध्याय में संलग्न हो जाते. धर्म रहस्य में रत उनकी अंतःसाधना विलक्षण प्रत्ययकारी थी. वे व्यापार करने वाले व्रती साधक और गहन ज्ञानोपासक थे. वे सदा अतंद्रावस्था में रहा करते थे. गाँधी जी के साथ उनका किसी भी प्रकार से न तो स्वार्थाधारित संबंध था ना व्यापारी संवाद था, फिर भी उनके अंतःस्थ संगी. साथियों में गाँधी जी का अंतर्भाव किया जा सकता है. राजचंद्र जी की धर्म चर्चा में सभी जनों को समान रुप से रसानुभूति हुआ करती थी. उनके तुलनात्मक दृष्टिकोण से वे प्रभावित थे. उनके मन में सभी धर्म-व्यवस्थाओं के अंतःकरण का सार समाया हुआ था. सर्वधर्म समभाव में उनका सहज विश्वास था. उन्होंने वेद, उपनिषद, गीता का स्वाध्याय किया था. इस्लाम और अन्यान्य धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया था. इस कारण उनकी धर्म वाणी सर्वस्पर्शी और सर्व समावेशक बनी. उनके कुछ वचन यों हैं------ जहाँ अहंकार है,वहाँ ईश्वरी तत्व नहीं होता है। सुख अंतःकरण का विषय है, उसे बाहर कैसे पाओगे ? दुनिया पर कब्जा करने के लिए मन पर कब्जा जरुरी है। जिस दिन शुभ कार्य संपन्न हुआ उसे महत्वपूर्ण मानो। एक अज्ञानी की करोडों बातें होती हैं, करोडो ज्ञानियों की एक ही बात होगी ! देह धारण करने पर भी संपूर्ण वीतरागभाव संभव है। उदर निर्वाह के लिए कोई भी काम किया जा सकता है, अन्याय पूर्वक धन नहीं कमाना चाहिए। भक्ति धर्म गृहस्थ जीवन के पाप कर्मों का क्षालन करता है। समय मौल्यवान होने के कारण उसका सदुपयोग होना चाहिए। जीवन लघु और जंजाल व्यापक है, जंजाल को सीमित करना जरुरी है। दिन भर की गलतियों पर रात में हँसा जा सकता है, लेकिन आगे न हँसने की चिंता करनी चाहिए। धर्म अपने आपको पहचानने की प्रक्रिया है। हिंसा का सबक कोई धर्म या धर्मोपदेशक नहीं पढाता। राजचंद्र जी से गाँधी जी की भेंट-मुलाकात गाँधी अध्यात्म अंतर्यात्रा का भव्य तीर्थ बना. दक्षिण आफ्रिका के आंदोलन काल में उनका राजचंद्र जी से व्यापक मात्रा में पत्र व्यवहार हुआ. इस पत्र संवाद ने गाँधी दृष्टि को विकसित किया. गाँधी अध्यात्म-पथ पर रौशनी फैली. उनका अंतर्मन राजचंद्र जी से अतीव प्रभावित था. विलायत से वापस आने पर लगातार दो सालों तक उनका नित्य मिलन हुआ. उनकी दृष्टि में राजचंद्र जी भारत के तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ तत्व चिंतक थे. राजचंद्र जी का मन संकुचित धर्म भावना से मुक्त होने के कारण विश्वव्यापी था. राजचंद्र जी के संबंध में विपुल मात्रा में ग्रंथ लेखन करने वाले श्री नेमचंद जी गाला लिखते हैं कि गाँधी-राजचंद्र पत्रों की संख्या दो सौ से अधिक हैं, लेकिन इस पत्र-व्यवहार का कहीं भी कोई सुविहित अंकन नहीं पाया जाता. ज्ञानयोगी राजचंद्र जी का कथन था कि चाहे कोई भी धर्म-मत-पंथ-संप्रदाय क्यों न हो, उसकी दृष्टि सत्तत्व की खोज करना ही है. ज्ञान श्रेष्ठ होने के कारण प्रतीति करने योग्य है. अनुभवरुप ज्ञान की ही सदैव पूजा होनी चाहिए. सबके साथ भक्तिभाव पूर्वक वर्तन-व्यवहार होना चाहिए.
SR No.229265
Book TitleMahatma Gandhiji ke Jain Sant Sadhu
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size193 KB
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