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________________ ४) श्रीमद राजचंद्र जी विलायत का अपना अध्ययन पूरा कर सन् १८९१ में गाँधी जी मातृभूमि लौटे थे. माता जी का निधन हो गया था. इस खबर को सुन उनकी चित्तवृत्ति व्याकुल हो गई. विलायत में रहते हुए उनका डॉ. प्राणजीवनदास जी से संपर्क बढा हुआ था. स्नेहवर्दन हुआ. उनके बड़े भाई पोपटलाल थे. पोपटलाल जी के जामाता थे रायचंदभाई. गाँधी जी का उनसे परिचय हुआ- बढ़ा. मानो मातृवियोग की क्षतिपूर्ति के लिए ही यह संपर्क था. उनके संबंध में अपने आत्मकथन में गाँधी जी ने लिखा है कि उनसे मिलने के पश्चात् वे अनेक धर्माचार्यों से मिले, अनेक सत्पुरुषों से भेंट करने के प्रसंग आए लेकिन रायचंदभाई जी के प्रभाव को कोई क्षीण नहीं कर सका. उनके अनेक वचन गाँधी जी के हृदय को स्पर्श कर गए. उनकी बुध्दिमत्ता एवं प्रामाणिकता के संदर्भ में गाँधी जी के मन में अपरंपार आदर भाव था. अनेकों बार आध्यात्मिक जागरण के प्रसंग में उन्होंने रायचंद भाई जी का मार्गदर्शन पाया. रायचंदभाई गाँधी जी से उम्र में दो साल बडे थे. दोंनो में समानता का अंतःसूत्र अर्थात् धर्म या अध्यात्म था. अनेक विषयों में विविधता होते हुए भी वे दोनों इस विषय में समान और समांतर रहे थे. सौराष्ट्र के बावणिया नामक गाँव में ९ अक्तुबर १८६७ को उनका जन्म हुआ. बचपन में वे लक्ष्मीनंदन नाम से परिचित थे. चौथे साल की उम्र में उन्हें रायचंदभाई नाम से पुकारा गया. बचपन से ही माँ सरस्वती के आशीर्वादों से वे कवित्व शक्ति से संपन्न थे. इसी काल में अखबारों के माध्यम से उनका निबंध लेखन प्रकाशित हुआ. ' राजचंद्र ' लेखकीय नाम से वह लेखन प्रकाश में आया है. बचपन से ही असामान्य स्मरण शक्ति ने उनका वरण किया. कवित्व एवं शैलीसंपन्न वक्तृत्व कला से वे मंडित थे. उनके दादा जी कृष्ण भक्त थे. इस वजह से बचपन से ही उन्हें वैष्णव भक्ति का रंग लग गया था. माता देवबाई जैन संस्कारों में दीक्षित थीं. राजचंद्र जी ने जैन साहित्य, संस्कृति, इतिहास, दर्शन का स्वाध्याय किया. श्मशान में एक शव का अग्नि संस्कार उन्होंने देखा और उनकी विराग भावना अधिक तीव्र हो गई. उनके चित्ताकाश में पूर्वजन्म का कोई संस्कार उदित हुआ. उन्हें शतावधानी के रुप में मान्यता प्राप्त थी. सोलहवें साल में वे अष्टावधानी तो थे ही. सन् १८८७ में मुंबई में उनका शतावधान का जाहीर प्रयोग जारी था. उस सभा में मुंबई हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश चार्ल्स सार्जंट भी उपस्थित थे. उन्होंने राजचंद्र जी के योरुप दौरे की योजना तैयार करना चाहा लेकिन राजचंद्र जी ने विनम्रता पूर्वक इस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया. गाँधी जी राजचंद्र भाई जी के शतावधानी रुप की तुलना में उनकी आंतरिक प्रतिभा से प्रभावित हुए. इस प्रभाव का रहस्य राजचंद्र जी के बुध्दि कौशल्य में न हो कर उनके विशुध्द चारित्र्य, समदृष्टि और आधात्मिक पराकाष्ठा तक पहुँचे हुए व्यक्तित्व में था. राजचंद्र जी जवाहरों के व्यापारी थे. अध्यात्म विचार और गृहस्थी की जिम्मेदारियों को उन्होंने समान रुप से निभाया था. उनके आचरण की तुलना विदेही राजा जनक से निश्चित ही की जा सकती है. व्यापार की धमाचौकडी में भी उनकी अंतःसाधना की ज्योति अखंड अकंप थी. उनकी व्यावहारिक उदारता का परिचय अनेक बार मिलता था. अरब से आने वाले व्यापारी जन उनमें ' खुदाई नूर ' का दीदार पाते. त्याग की परमोच्चावस्था को स्पर्श करने वाले इस व्यापारी साधक ने निरिच्छ भाव साधना का जागरण किया था. धोती, कुर्ता, माथे पर पगडी उनकी सादगीभरी पोशाक थी. भोजन के विषय में वे रसशून्य दशा तक पहुंच चुके थे. उनकी चाल धीर गंभीर थी. वे अखंड ध्यानमग्न अवस्था में रहा करते थे. उनके गंभीर स्वभाव पर उनके मोहक स्मित साधक चेहरे की सुंदर मुहर थी. कंठ में मोहक स्वर विलास था. उनका लेखन और अक्षर सुंदर थे. एक बार लिखने बैठे कि बैठे. उनके लेखन में कहीं काटछाट या दुबारा लिखने का प्रयत्न नहीं दिखाई देता है. यह
SR No.229265
Book TitleMahatma Gandhiji ke Jain Sant Sadhu
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size193 KB
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