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जैन व्रत
- सुरेंद्र बाथरा
जैन श्रमणाचार, श्रावकाचार और साधना तथा जीवनशैली का आधार है पाँच महाव्रत। जैन परंपरा के प्राचीनतम ग्रंथों, अंग सूत्रों में इनका उल्लेख इस रूप में है -- सर्व प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह विरमण (स्थानांग
सूत्र 5,1,1)। कालांतर में ये जिस रूप में प्रसिद्ध हुए वह है -- (1) हिंसा, (2) अनृत (असत्य), (3) स्तय (चोरी). (4) अब्रह्म,
और (5) परिग्रह -- इनसे विरत होना व्रत है (तत्त्वार्थ सूत्र)। ये व्रत ही पातंजलि योगसूत्र में यम कहे जाते हैं और अन्य अनेक
धर्म-दर्शनों में विभिन्न रूप में विद्यमान हैं।
राग-द्वेष तथा असावधानी से प्राणों को पीड़ा देना या हनन करना हिंसा है। मिथ्या में प्रवृत्त होना असत्य है। अपने
अधिकार क्षेत्र के बाहर की वस्तु को लेना चौर्य है। मैथुन अथवा कामवासना में प्रवृत्त होना अब्रह्मचर्य है। मूर्छाजनित आसक्ति परिग्रह है। जिन ऋणात्मक भावनाओं का यहाँ निषेध किया है, वे सभी हिंसा की प्रेरक हैं। असत्य भाषण तत्काल सुनने वाले को उत्तेजित करता है और हिंसक प्रतिक्रिया होती है। अनभिज्ञता के कारण प्रतिक्रिया न भी हो तो असत्य को सत्य मानकर
जो कोई भी कार्य किया जाता है, वह अंततः हानिकारक होता है, अतः हिंसा की श्रेणी में आता है। स्तेय अर्थात् चोरी सीधे ही हिंसक कार्य है और वह चोट पहुंचाने या मार देने से भी अधिक गहरी हिंसा है क्योंकि वह दीर्घकाल तक एकाधिक प्राणियों को कष्ट देती है। अब्रह्मचर्य अथवा कामासक्ति भी हिंसा के व्यापक प्रसार का हेतु है। परिग्रह अर्थात् संग्रह करने का मोह
सभी हिंसाओं का स्रोत है, क्योंकि यह मूलतः स्वार्थजनित है और अंधा स्वार्थ हिंसा को असीम उर्जा प्रदान करता है। इस
प्रकार अहिंसा में शेष चारों व्रत समाविष्ट हो जाते हैं क्योंकि वे अहिंसा के प्रेरक और सहयोगी हैं। अहिंसा ही सब व्रतों का
आधार और ध्येय दोनों है।
महत्ता के आधार पर उपरोक्त पाँच महाव्रतों का क्रम है अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । किंतु इनके पालन
की दृष्टि से देखें तो क्रम उल्टा हो जाता है और सर्वप्रथम अपरिग्रह से शुरू करना होता है क्योंकि अपरिग्रह के पालन के
अभाव में शेष व्रतों से होते हुए अहिंसा तक नहीं पहुंचा जा सकता। यों आत्मिक विकास के अहिंसा-आधारित मार्ग पर पहला चरण अपरिग्रह है। इस पाँचवें व्रत को हम प्रथम व्रत अहिंसा के आचरण की आधारभूमि कह सकते हैं। जीवन व्यवहार में
अहिंसा पालन की शुरूआत पाँचवें व्रत अपरिग्रह से होती है।
अपरिग्रह का अर्थ परिग्रह का अभाव और परिग्रह का अर्थ है किसी वस्तु या भाव को घेरकर जकड़ कर पकड़ना। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मूर्छा परिग्रह है। किसी के प्रति असंयमित होने तक लगाव की अति ही परिग्रह है। इसमें लगाव, मोह आदि जुड़ाव के सभी भाव शामिल हैं। परिग्रह का सामान्य अर्थ है वस्तुओं के प्रति मोह और उनके संकलन की प्रवृत्ति । यह मोह संकलन हेतु हिंसा करवाता है, उसमें बाधा आने पर हिंसा करवाता है और उससे वंचित किए जाने पर हिंसा करवाता है।