________________
पूर्णतः त्याग करना होता है और दिन में भी ऊबाला हुआ जल पीने का होता है । इसी वजह से आरोग्य विज्ञान की दृष्टि से जल में स्थित सूक्ष्म जीवाणु द्वारा होने वाले रोग से हम बच सकते हैं । ___ एकासन अर्थात् दिन में सिर्फ एकवार ही एक साथ खा लेना । उसके पहले और बाद में दिन में सिर्फ ऊबाले हुए पानी के अलावा कुछ नहीं लेना || ऐसे दिन में सिर्फ एक बार ही नियमित खाने से शरीर के यंत्र को रात को पूर्णतः आराम मिलता है । अतः रात को खून व ऑक्सिजन की भी कम जरूरत पड़ती है । परिणामतः हृदय व फेफडों को ज्यादा श्रम नहीं करना पड़ता है । अतः शरीर को पूर्ण आराम मिलता है और सुबह के कार्यों में स्फूर्ति का अनुभव होता है । एकासन व बियासणा के आहार में भी अभक्ष्य, अपथ्य व तामसिक आहार का त्याग होता है और सात्त्विक, पौष्टिक व संतुलित आहार लिया जाता है । अतः अभक्ष्य या तामसिक खुराक से उत्पन्न होने वाली विकृतियाँ पैदा नहीं होती हैं ।
आहार के तीन प्रकार हैं : 1. सात्त्विक, 2. राजसिक, 3. तामसिक ।। सात्त्विक जीवन के लिये सात्त्विक आहार ही करना चाहिये । संभव हो तो राजसिक आहार भी नहीं करना चाहिये किन्तु तामसिक आहार तो कभी नहीं करना क्योंकि वह क्रोधादि कषायों को उत्पन्न करने वाला या उसका पोषक या उद्दीपक है । जैन धर्म ग्रंथों में बताये हुए नीति-नियम के अनुसार आहार करने वाले तामसिक आहार का सरलता से त्याग कर सकते हैं । परिणामतः कोई रोग उत्पन्न नहीं होते हैं । | आयंबिल एक विशिष्ट प्रकार का तप है | इस तप में दिन में सिर्फ एक ही बार रूखा सूखा आहार लिया जाता है । उसमें मुख्य रूप से दूध, दही, घी, गुड, सक्कर, तेल, पक्वान्न, मिष्टान्न का त्याग होता है । उसमें हल्दी, मिर्च-मसाला या दूसरा कोई भी नमकीन नहीं लिया जाता है । इस तप से आध्यात्मिक दृष्टि से जीभ पर विजय पाकर शेष चारों इद्रियों पर भी विजय पाया जा सकता है । सभी इन्द्रियाँ वश में आने पर चार कषाय और मन पर विजय प्राप्त होती है । परिणामतः कर्मबंध अल्प व निर्जरा ज्यादा होनेसे मोक्षप्राप्ति हो सकती है ।
इसके अलावा इस तप से शरीर में कफ व पित्त का शमन होता है क्योंकि कफ उत्पन्न करने वाले पदार्थ दूध, दही, घी, गुड, शक्कर, तेल,
61
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org