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पक्वान्न, मिष्टान्न सभी का इस तप में पूर्णतः त्याग होता है । हरी सब्जी जो सामान्यतः पित्तवर्धक होती हैं उनका भी त्याग होता है । आयुर्वेद की दृष्टि से सर्व रोग का मूल वात, पित्त और कफ की विषमता ही है । सामान्यतः लोग पित्त व कफ उत्पन्न हो वैसे ही पदार्थ खाते हैं । परिणामतः आरोग्य बिगडता है । जैन ग्रंथकारों ने भी प्रति माह पाँच या बारह दिन और बारह |माह में चैत्र व आसोज माह में नौ-नौ दिन आयंबिल करने को कहा है। चैत्र व आसोज माह ऋतुओं का संधिकाल है । इस समय विशेषतः रोग होने की संभावनाएँ अधिक होती हैं । यदि आहार में पथ्यापथ्य का विवेक न | रखा जाय तो बहुत लंबे समय की बिमारी हो सकती है । आयुर्वेद में कहा है कि " वैद्यानां शारदी माता, पिता तु कुसुमाकर । " वैद्यराजों के लिये शरद ऋतु माता है और वसंत ऋतु पिता है क्योंकि इन ऋतुओ में ही लोग अधिक बिमार होते हैं और डॉक्टर व वैद्यों को अच्छी आमदनी होती है । ।
उपवास जैन धर्म का एक अनोखा विशिष्ट तप है | उपवास दो प्रकार के होते हैं । 1. तिविहार और 2. चौविहार । जैन परंपरा के अनुसार | उपवास का प्रारंभ अगले दिन शाम से होता है और समाप्ति तीसरे दिन |सुबह होती है । अतः पूरे 36 घंटे का उपवास होता है । तिविहार उपवास |में सुबह 10 बजे से सूर्यस्त तक सिर्फ ऊबाला हुआ ठंडा पानी ही पीया जाता है । जबकि चउविहार उपवास में पानी का एक बूंद भी नहीं लिया जाता है | __ जीवन के लिये हवा, पानी व आहार आवश्यक है । शक्ति के लिये आहार और आहार को पचाने लिये पानी व पचे हुए आहार में से शक्ति पाने के लिये ऑक्सिजन स्वरूप में हवा आवश्यक है । उपवास जैसे आत्मशुद्धि का साधन है वैसे वह देहशुद्धि का भी साधन है । उपवास करने से शरीर के अंदर से कचरा निकल जाता है । शरीर में बढे हुए वात, पित्त व कफ का उपशम या उत्सर्जन होता है और शरीर शुद्ध होता है । उपवास मे किसी को दुसरे या तीसरे दिन पित्त का वमन होता है और उसके द्वारा बढा हुआ पित्त बाहर निकल जाता है | कफ हो तो वह भी दूर हो जाता है। | अत- पंद्रह दिन या महिने में एक उपवास अवश्य करना चाहिये ।
संक्षेपमें, जैन धर्म में बताया गया रात्रिभोजन का त्याग, बियासना. एकासना, आयंबिल, उपवास आदि तप आरोग्यविज्ञान व शरीरविज्ञान की
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