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और ध्यान तीनों भिन्न भिन्न होते हैं । ध्यानस्थ आत्मा जब ध्याता, ध्येय और ध्यान तीनों का अभेद अनुभव करता है और परमात्म स्वरूप या आत्मरमणता में लीन हो जाता है तब वह लय की अवस्था को प्राप्त करता है । ऐसा लय करोड़ बार के ध्यान के बराबर होता है ।
उपर्युक्त श्लोक में पूजा, स्तुति (स्तोत्र ) पाठ, जप, ध्यान व लय को उत्तरोत्तर ज्यादा शक्तिसंपन्न बताया गया है । उसमें जाप के तीन प्रकार हैं। । 1. भाष्य या वाचिक, 2. उपांशु व 3. मानस |
1. जाप करने वाले व्यक्ति के अलावा अन्य व्यक्ति भी सुन सके उसी प्रकार उच्चारणण पूर्वक जाप करना भाष्य या वाचिक जाप कहा जाता है । 2. अन्य व्यक्ति सुन न सके उस प्रकार केवल ओष्ठ व जीभ हिलाकर जाप करना वह उपांशु जाप कहा जाता है ।
3. जिनमें ओष्ठ, जीभ का भी उपयोग किये बिना ही केवल मन से ही जाप किया जाय उसे मानस जाप कहा जाता है ।
धर्मसंग्रह नामक ग्रंथ में उपाध्याय श्री मानविजयजी ने बताया है कि - ...सशब्दान् मौनवान् शुभः । मौनजान्मानस श्रेष्ठ, जापः श्लाध्यः परः परः ।। सशब्द ( भाष्य ) जाप से मौन (उपांशु) जाप शुभ है और मौन जाप से मानस जाप श्रेष्ठ है । ये तीनों जाप उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं ।
श्री पादलिप्तसूरिकृत प्रतिष्ठापद्धति (कल्प ) में कहा है कि .
जाप के मानस, उपांशु व भाष्य तीन प्रकार है । जिनमें अन्तर्जल्प भी नहीं होता है, केवल मन से ही होने वाला जाप जिनको स्वयं ही जान सके | उसे मानस जाप कहलाता है । जिनमें अन्तर्जल्प होने पर भी अन्य कोई भी सुन न सके वह उपांशु जाप और अन्य व्यक्ति सुन सके वह भाष्य जाप कहलाता है । पहला मानस जाप कष्टसाध्य है और उससे शांतिकार्य किया जाता है । अतः वह उत्तम है । दूसरा उपांशु जाप सामान्य व पौष्टिक कार्य के लिये किया जाता है अतः वह मध्यम है और तीसरा भाष्य जाप सुकर व दूसरों का पराभव ( वशीकरण ) इत्यादि के लिये किया जाता है अतः वह अधम कहा है ।
आधुनिक भौतिकी में डी. ब्रोग्ली नामक विज्ञानी ने द्रव्य-कण-तरंगवाद द्वारा बताया कि कोई भी सूक्ष्म कण तरंग स्वरूप में भी वर्तन करता है और उन कणों से संबंधित तरंग की तरंगलंबाई के लिये एक समीकरण / सूत्र
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