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जैनदर्शन और आइन्स्टाइन का सापेक्षतावाद
अनेकान्तवाद अर्थात् सापेक्षतावाद जैनदर्शन की महत्त्वपूर्ण भेंट है । किसी भी पदार्थ या प्रश्न का विभिन्न पहलू से या दृष्टिकोण से विचार करना, उसे | भगवान श्री महावीरस्वामी ने अनेकान्तवाद कहा है |
जैनदर्शन अनुसार इस ब्रह्मांड में अनंत पदार्थ हैं और उसमें प्रत्येक पदार्थ के अनंत पर्याय है । तथापि उन सभी पदार्थों का केवल छः द्रव्य में समावेश हो जाता है । ये छ: द्रव्य शाश्वत / नित्य हैं तथापि वे पदार्थ पर्याय की दृष्टि से अनित्य भी हैं । इस प्रकार एक ही पदार्थ में परस्पर विरुद्ध ऐसे नित्यत्व व अनित्यत्व तथा अन्य भी अनेक धर्मों का कथन करना ही सापेक्षतावाद । अनेकान्तवाद है ।
श्रमण भगवान महावीरस्वामी का यह सापेक्षतावाद वस्तुतः वैचारिक है तथापि वह इस ब्रह्मांड की बहुत सी घटनाओं को समझाने में सफल होता है और उससे दृश्य विश्व के बहुत से प्रश्नों का समाधान हो सकता है ।
दूसरी ओर ई. स. 1905 में सुप्रसिद्ध विज्ञानी आल्बर्ट आइन्स्टाइन ने आधुनिक भौतिकी में प्रकाश के वेग के संदर्भ में विशिष्ट सापेक्षता सिद्धांत का आविष्कार किया और बाद में ई. स. 1915 में गुरुत्वाकर्षण के संदर्भ में सामान्य सापेक्षता सिद्धांत का आविष्कार किया । आइन्स्टाइन द्वारा स्थापित ये दोनों सिद्धांत आइन्स्टाइन की कल्पना व बुद्धि की पैदाइश है, किन्तु आइन्स्टाइन के इन सिद्धांतों को स्पष्ट रूप में न समझने वाले जैन तत्त्वचिंतक / विद्वान केवल शब्द के साम्य से श्रमण भगवान श्री महावीर दर्शित सापेक्षतावाद व आइन्स्टाइन दर्शित सापेक्षतावाद को एक ही मानते हैं । किन्तु दोनों में जमीन आसमान का अंतर है । ___ आइन्स्टाइन के सापेक्षतावाद के ये दोनों सिद्धांत दो पूर्वधारणा पर आधारित है । पूर्वधारणा अर्थात् बिना किसी भी प्रकार के प्रमाण से स्वीकार की गई मान्यता |
आइन्स्टाइन के विशिष्ट सापेक्षता सिद्धांत की प्रथम पूर्वधारणा यह है कि समग्र ब्रह्मांड में प्रकाश के वेग से ज्यादा वेग किसी भी पदार्थ का नहीं होता है, नहीं हो सकता है । हालाँकि, वर्तमान परिस्थिति में इस पूर्वधारणा
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