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ग्रहण/संचय भी करते हैं, उसका त्याग भी करते हैं, और उसका परिमाण भी करते हैं। पर्यायदृश्टिविशयक इस सत्य को स्वीकार नहीं करने से व्रत, नियम, संयम आदि का निशेध हो जाएगा। प्र न १३ : आचार्य ने जो कहा है कि निमित्त धर्मद्रव्यवत्
उदासीन है, इससे
क्या तात्पर्य है? उत्तर : निमित्त कर्ता नहीं होता, यही द ाने के लिये आचार्य
ने उसे धर्मद्रव्यवत् कहा है। प्र न १४ : पण्डित बनारसीदासजी और भैया भगवतीदासजी के निमित्त
उपादान सम्बन्धी दोहों का क्या अर्थ लगाना चाहिये? उत्तर : उनमें निमित्त को कर्ता मानने का निशेध किया गया
है, निमित्त को निमित्त मानने का नहीं; अतः वे सापेक्ष
कथन हैं। प्र न १५ : निमित्त का उपकार अथवा अपकार माने या नहीं? उत्तर : जहाँ तक उपकार का प्र न है - हमने अपना कार्य
स्वयं किया है; तो भी, चूंकि निमित्त के अवलम्बनपूर्वक किया है, इसलिये श्टिाचार के नाते हम उसका उपकार मानते हैं, और मानना भी चाहिये। उपकार की ही भाँति उपकार भी निमित्त ने नहीं किया – हमने स्वयं ही उसका अवलम्ब लेकर अपना अहित कर लिया; अतः उससे द्वेश करने का तो प्र न ही पैदा नहीं होता। किन्तु, आत्मबल के अभाव में 'प्रतिकूल निमित्तों से दूर रहना भी आव यक है – इसलिये नहीं कि वह हमारा कुछ अहित कर देगा, बल्कि इसलिये कि उसका अवलम्ब लेकर हम स्वयं अपना अहित न कर लें।