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रूप में यह स्वतंत्र है । तथा, जितनी शक्ति का वर्तमान में अभाव है, उसकी प्राप्ति के लिये अर्थात् आत्मशक्ति को बढ़ाने के लिये यह पुरुषार्थ कर सकता है। इतना अवश्य है कि ऐसा पुरुषार्थ क्रम-क्रम से, गुणस्थानों के अनुसार ही होना सम्भव है।
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शुद्ध आत्मा का, सिद्धात्मा का स्वाभाविक परिणमन पर-निरपेक्ष है। परन्तु, संसारी आत्मा का वैभाविक परिणमन परनिरपेक्ष नहीं होता; विकारी परिणमन में पर का निमित्तपना होना ज़रूरी है। अन्यथा, वह विकार जीव का स्वभाव ठहर जाएगा, और फिर उसका कभी अभाव न हो सकने का प्रसंग आ खड़ा होगा। उदाहरण के लिये, माणिक्य का स्वाभाविक लालिमायुक्त परिणाम पर - निरपेक्ष है; जबकि स्फटिकमणि का लालिमायुक्त परिणमन परनिमित्तक है, जपापुष्प आदि परपदार्थ के निमित्त से है अतः विकार है; और इसीलिये मिट भी सकता है। परनिमित्तक विकार के मिट जाने पर स्फटिकमणि अपने स्वाभाविक निर्मल परिणाम को पुनः प्राप्त कर लेती है ।
अष्टकर्मों में से जो चार अघातिकर्म हैं, उनके उदय का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध मुख्यतः पौद्गलिक पदार्थों तक सीमित है, क्योंकि अधिकांश अघातिकर्मप्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी हैं। अतः उनके उदयकाल में शरीरादिक की तथा अन्य संयोगों की उदयानुसार परिणति होती है । प्रकृत में तो उन्हीं कर्मों की चर्चा है जो जीवविपाकी हैं, जिनका फल आत्मा की आन्तरिक शक्तियों से सम्बन्धित है, अर्थात् मुख्यतः चार घातिकर्म, और उनमें भी विशेषरूप से मोहनीय कर्म, जो कि जीव के संसार का मूल कारण है। विचार करने पर हम पाते हैं कि जीव यहाँ भी अपने परिणमन में स्वतन्त्र है; अतः वह रागादिभावरूप जैसा
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