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जहां कहीं भी शास्त्रों में भगवान् आचार्यों द्वारा कहा गया है कि द्रव्यदृष्टि के विषय का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, वहां निश्चित रूप से, निस्सन्देह यह समझना चाहिये कि यह कथन पर्यायमूढ जीवों को लक्ष्य करके कहा गया है, कि यह सापेक्ष कथन है – किसी अपेक्षा-विशेष से ऐसा कहा गया है। जो जीव पर्यायमूढ़ थे, अथवा हैं, उन्हें द्रव्यदृष्टि के सम्यक् एकान्त द्वारा उस दृष्टि के विषयभूत वस्तु-अंश (अर्थात् आत्म-स्वभाव) के श्रद्धान का उपदेश दिया गया है। यह कथन प्रतिपक्षी नय से निरपेक्ष नहीं है अपितु पर्यायदृष्टि की सापेक्षता को लिये हुए है — आचार्यों का ऐसा सम्यक् अभिप्राय समझना चाहिये।
६१.६ पर्यायदृष्टि-विषयक मिथ्या श्रद्धान
का स्वरूप और उसका
सम्यक् श्रद्धान से गंभीर अंतर अब विचार करना है कि मात्र पर्यायदृष्टि-विषयक श्रद्धान – प्रतिपक्षी दृष्टि (द्रव्यदृष्टि) से निरपेक्ष श्रद्धान – जिसे पर्यायमूढ़ता कहा जाता है, वह कैसा होता है; और, दूसरी ओर, पर्यायदृष्टि के विषय का सम्यक् श्रद्धान – द्रव्यदृष्टि-सापेक्ष श्रद्धान – कैसा होता है। पर्यायमूढ़ जीव को :
(क) शरीर व आत्मा एकरूप अर्थात् शरीर ही आत्म-रूप,
स्वयं-रूप दिखाई देता है; (ख) राग-द्वेष आदि भाव अपने स्वभाव दिखाई देते हैं; (ग) द्रव्यकर्म के साथ वह अपना कर्ता-कर्म सम्बन्ध
समझता/मानता है; (घ) बाहरी स्थितियों में (जिनके लिये यह जीव वस्तुतः मात्र
निमित्त होता है), कर्तृत्व-बुद्धि करके वह अहंकार कर लेता है। संयोगजन्य स्थितियों में उसकी स्वामित्व-बुद्धि या एकत्व-बुद्धि उस अहंकार को और भी पुष्ट करती