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हो सकता क्योंकि ऐसा श्रद्धान तो एकान्त मिथ्यात्व होगा। सम्यग्दर्शन तो तब होता है जब सम्पूर्ण आत्म-वस्तु का, जैसी वस्तु है
सामान्य-विशेषात्मक अथवा द्रव्य-पर्यायात्मक
उसका वैसा ही, सही, सच्चा, सम्यक् श्रद्धान हो; जहां साधक दोनों दृष्टियों के विषय को आत्म-वस्तु के अस्तित्व में एक साथ देखता हो; जहां पर न कोई एक वस्तु-अंश मुख्य हो और न दूसरा वस्तु - अंश गौण, न कोई निश्चय हो और न कोई व्यवहार; जहां नयों का, दृष्टियों का पक्षपात नहीं रह गया हो।
$ १.८ एकान्तमूढ़ जीव को प्रतिपक्षी दृष्टि के
सम्यक् एकान्त द्वारा वस्तु - स्वरूप
ग्रहण कराने का आचार्यों का प्रयास
सम्यक्
वस्तु तो जैसी है, वैसी ही है। देखने वाले की दृष्टि वस्तु-स्वरूप में तो कुछ परिवर्तन ला नहीं सकती। हां, यदि वह अपनी दृष्टि सही कर ले तो उसे वस्तु - स्वरूप की सम्यक् प्राप्ति अवश्य हो सकती है। जहां श्रोता पर्यायमूढ़ है, वहां द्रव्यदृष्टि की मुख्यता से कथन करके एकान्त के द्वारा उसे द्रव्यदृष्टि के विषयभूत वस्तु - अंश का ज्ञान कराया जाता है (ज्ञातव्य है कि प्रतिपक्षी दृष्टि को गौण किन्तु जीवित रखते हुए, विवक्षित दृष्टि की मुख्यता से किया गया कथन सम्यक् एकान्त कहलाता है)। सम्बोधित करने की इस विधि के अनुसार ही, आचार्य उस पर्यायमूढ़ को कहते हैं कि हे जीव ! यदि तू इस द्रव्यदृष्टि के विषयभूत आत्म-वस्तु का श्रद्धान कर ले तो तेरा पर्यायदृष्टि-विषयक श्रद्धान, जो वर्तमान में मिथ्या है, तब सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाएगा अर्थात् तुझे द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु का सही श्रद्धान हो जाएगा। इसके ठीक विपरीत, द्रव्यदृष्टि की एकान्त मान्यता रखने वाला, द्रव्यमूढ़, कोई जीव यदि है तो उसे सम्बोधित करते हुए आचार्य कहेंगे कि हे जीव ! यदि तू पर्यायदृष्टि के विषयभूत आत्म-वस्तु का श्रद्धान कर ले तो तेरा द्रव्यदृष्टि-विषयक श्रद्धान, जो वर्तमान में मिथ्या है, सही होकर, द्रव्य - पर्यायात्मक वस्तु का सम्यक् श्रद्धान तुझे हो जाएगा ।
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