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हो रही कमियों-गलतियों को न देखे-समझे, और इस वजह से उन्हें दूर करने का उपाय भी न करे, तो आत्मकल्याण-रूपी अभीष्ट कार्य की सिद्धि कैसे हो? वस्तुतः अपनी पर्याय में हो रही पराधीनताओं को समझ कर, स्वानुभवन के द्वारा उनको क्रमशः घटाते हुए ही स्वाधीनता की ओर बढ़ा जाता है। तब, बाहर की ओर से देखने पर पराधीनता का अभाव होता दीखता है, और अंतरंग में स्वाधीनता की प्राप्ति होती दीखती है। पराधीनता का अभाव करने के लिये चरणानुयोग की उपयोगिता को स्वीकार करना ज़रूरी है। चरणानुयोग के विषयभूत आचरण का कथन जब द्रव्यदृष्टि की मुख्यता से किया जाता है तो कहा जाता है कि 'जीव की पर्याय अथवा अवस्था अमुक-अमुक प्रकार से होती है, ज्ञान तो उस अवस्था का मात्र जानने वाला है, ज्ञाता है, कर्ता नहीं है।' दूसरी ओर, इसी विषय को पर्यायदृष्टि की मुख्यता से इस प्रकार कहना भी जरूरी है कि 'साधक को अंतरंग आचरण अर्थात् स्वाधीनता को बढ़ाने के लिये - दूसरे शब्दों में, अपनी पर्याय की पराधीनता को दूर करने के लिये - बाह्य आचरण का अवलम्बन लेना चाहिये। यह द्रव्यदृष्टि का ही प्रताप है कि उसके द्वारा जीव को पर्याय में होने वाली अपनी पराधीनता का सही/सम्यग् ज्ञान होता है। इसलिये, द्रव्यदृष्टि के विषयभूत वस्तु-अंश के ज्ञान के साथ-साथ यदि इस जीव को पर्यायदृष्टि की अपेक्षा अपने विकार, अपनी हीनताएं न दिखाई दें तो इसके द्रव्यदृष्टि-विषयक ज्ञान को भी सही/सम्यक् नहीं कहा जा सकता। अपनी पर्याय की हीनताओं को दूर करने के लिये, एक ओर तो जो अवलम्बन उन हीनताओं के बढ़ने में साधन हों, उनसे हटना ज़रूरी है; और, दूसरी ओर, ऐसे साधनों को अपनाना भी जरूरी है जिनके माध्यम से हीनता घटाई जा सके, हालांकि द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा तो यह जीव न साधनों को जुटाने वाला है और न ही उनसे हटने वाला है। इस प्रकार, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों प्रतिपक्षी नयों के विषयों की अविरोध-रूप एकता हमें अपने जीवन में प्राप्त करनी है।
११.१४ उपसंहार