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मिथ्यादृष्टि है – क्योंकि आत्म-वस्तु के परिणमन को ही उसने स्वीकार नहीं किया। समयसार का यह कथन कि 'हे जीव, तू रागादि का कर्ता नहीं हैं, द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा से किया गया है, किन्तु हे द्रव्यमूढ! तूने तो पर्यायदृष्टि की अपेक्षा भी रागादि के कर्तृत्व का निषेध कर दिया!! द्रव्यदृष्टि के विषय का सही ज्ञान होने से, पर्याय में हो रहे कार्यों का अहंकार नहीं होगा, परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि पर्याय का अस्तित्व ही मिट जाएगा। आत्मा और शरीर की क्रियाओं के बीच कर्ता-कर्म सम्बन्ध का निषेध इसलिये किया गया था कि दो भिन्न द्रव्यों के बीच एकत्व की मान्यता इस जीव के अंतरंग में कहीं अब भी बनी न रह जाए, क्योंकि ऐसा होना मिथ्यात्व है। परन्तु, तूने तो उनके बीच निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध के अस्तित्व को मानने से भी इंकार कर दिया! जिस प्रकार निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को कर्ता-कर्म सम्बन्धवत् मानना मिथ्यात्व है, उसी प्रकार निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध के होते हुए, उसे न मानना, स्वीकार न करना भी तो मिथ्यात्व है! इस विषय में सम्यक मान्यता तो यह होनी चाहिये कि यद्यपि मैं शरीर की परिणतियों का, क्रियाओं का उपादान नहीं हूं, तथापि मेरे शुभ-अशुभ परिणामों के होने पर ही शारीरिक अथवा वाचनिक क्रियाएं होती हैं; इसलिये मैं अपने उन रागादिक परिणामों के लिये जिम्मेवार हूँ, और वे मेरे विकार हैं, मेरी गलतियां हैं।
६ १.१२ सम्यग्दर्शन : नयपक्षातीत,
प्रमाणभूत आत्म-वस्तु का श्रद्धान पण्डितप्रवर टोडरमल्ल जी ने मोक्षमार्ग-प्रकाशक के सातवें अधिकार में, 'निश्चयाभासी' प्रकरण के अन्तर्गत लिखा है कि जो व्यक्ति रागादिक को परकृत ही मानकर, स्वयं को निरुद्यमी और प्रमादी बनाते हुए, कर्म का ही दोष ठहराता है, उसे 'रागादिक का उपादान स्वयं आत्मा है, अतः रागादिक आत्मा के हैं – इस प्रकार उपादान कारण की मुख्यता से कथन करके – सम्यक् श्रद्धान के सम्मुख कराया है। यह एक सापेक्ष कथन है जो कि द्रव्यदृष्टि के एकांतावलम्बी को लक्ष्य करके किया गया